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[http://www.lernu.net/lernu.php?lingvo=en Lernu.net]
गोदाऩ
921
2849
2006-01-30T16:37:49Z
59.94.40.54
/* 1 */
प्रेमचन्द रचित
गोदान
Devanagari text
reconstituted from the
roman transcription made
under the direction of
Professors T. Nara and K.
Machida of the Institute
for Study of Languages
http://www.aa.tufs.ac.jp/
and Cultures of Asia and
Africa at Tokyo
University of Foreign
Studies
Recoded: 20 Sept. 1999 to
6 Oct 1999.
Chapter one posted: 6 Oct
1999.
Updated and parahraphed:
8 Oct 1999, 17 Oct 1999.
Converted into Unicode by
Sanjay Khatri on 1 May
2005.
== 1 ==
होरीराम ने दोनों बैलों को
सानी-पानी देकर अपनी स्त्री धनिया से कहा --
गोबर को ऊख गोड़ने भेज देना। मैं न जाने कब
लौटूँ। ज़रा मेरी लाठी दे दे।
धनिया के दोनों हाथ गोबर से भरे थे।
उपले पाथकर आयी थी। बोली -- अरे, कुछ
रस-पानी तो कर लो। ऐसी जल्दी क्या है।
होरी ने अपने झुरिर्यों से भरे हुए माथे
को सिकोड़कर कहा -- तुझे रस-पानी की पड़ी
है, मुझे यह चिन्ता है कि अबेर हो गयी तो
मालिक से भेंट न होगी। असनान-पूजा करने
लगेंगे, तो घंटों बैठे बीत जायगा।
'इसी से तो कहती हूँ, कुछ
जलपान कर लो। और आज न जाओगे तो कौन
हरज़ होगा। अभी तो परसों गये थे।'
'तू जो बात नहीं समझती,
उसमें टाँग क्यों अड़ाती है भाई! मेरी लाठी दे दे
और अपना काम देख। यह इसी मिलते-जुलते
रहने का परसाद है कि अब तक जान बची हुई है।
नहीं कहीं पता न लगता कि किधर गये। गाँव में
इतने आदमी तो हैं, किस पर बेदख़ली नहीं
आयी, किस पर कुड़की नहीं आयी। जब दूसरे के
पाँवों-तले अपनी गर्दन दबी हुई है, तो उन पाँवों
को सहलाने में ही कुशल है। '
धनिया इतनी व्यवहार-कुशल न थी।
उसका विचार था कि हमने ज़मींदार के खेत जोते
हैं, तो वह अपना लगान ही तो लेगा। उसकी
ख़ुशामद क्यों करें, उसके तलवे क्यों सहलायें।
यद्यपि अपने विवाहित जीवन के इन बीस बरसों
में उसे अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि चाहे
कितनी ही कतर-ब्योंत करो, कितना ही
पेट-तन काटो, चाहे एक-एक कौड़ी को दाँत से
पकड़ो; मगर लगान बेबाक़ होना मुश्किल है।
फिर भी वह हार न मानती थी, और इस विषय
पर स्त्री-पुरुष में आये दिन संग्राम छिड़ा रहता
था। उसकी छः सन्तानों में अब केवल तीन ज़िन्दा
हैं, एक लड़का गोबर कोई सोलह साल का,
और दो लड़कियाँ सोना और रूपा, बारह और
आठ साल की। तीन लड़के बचपन ही में मर गये।
उसका मन आज भी कहता था, अगर उनकी
दवादारू होती तो वे बच जाते; पर वह एक धेले
की दवा भी न मँगवा सकी थी। उसकी ही उम्र
अभी क्या थी। छत्तीसवाँ ही साल तो था; पर सारे
बाल पक गये थे, चेहरे पर झुरिर्याँ पड़ गयी थीं।
सारी देह ढल गयी थी, वह सुन्दर गेहुआँ रंग
सँवला गया था और आँखों से भी कम सूझने लगा
था। पेट की चिन्ता ही के कारण तो। कभी तो
जीवन का सुख न मिला। इस चिरस्थायी
जीऩार्वस्था ने उसके आत्म-सम्मान को उदासीनता
का रूप दे दिया था। जिस गृहस्थी में पेट की
रोटियाँ भी न मिलें, उसके लिए इतनी ख़ुशामद
क्यों? इस परिस्थिति से उसका मन बराबर
विद्रोह किया करता था। और दो चार घुड़कियाँ खा
लेने पर ही उसे यथार्थ का ज्नान होता था।
उसने परास्त होकर होरी की लाठी,
मिरजई, जूते, पगड़ी और तमाखू का बटुआ
लाकर सामने पटक दिये।
होरी ने उसकी ओर आँखें तरेर कर कहा
-- क्या ससुराल जाना है जो पाँचों पोसाक लायी
है? ससुराल में भी तो कोई जवान साली-सलहज
नहीं बैठी है, जिसे जाकर दिखाऊँ।
होरी के गहरे साँवले, पिचके हुए चेहरे
पर मुस्कराहट की मृदुता झलक पड़ी। धनिया ने
लजाते हुए कहा -- ऐसे ही तो बड़े सजीले
जवान हो कि साली-सलहजें तुम्हें देख कर रीझ
जायँगी!
होरी ने फटी हुई मिरजई को बड़ी
सावधानी से तह करके खाट पर रखते हुए कहा
-- तो क्या तू समझती है, मैं बूढ़ा हो गया?
अभी तो चालीस भी नहीं हुए। मर्द साठे पर पाठे
होते हैं।
'जाकर सीसे में मुँह देखो।
तुम-जैसे मर्द साठे पर पाठे नहीं होते। दूध-घी
अंजन लगाने तक को तो मिलता नहीं, पाठे
होंगे! तुम्हारी दशा देख-देखकर तो मैं और भी
सूखी जाती हूँ कि भगवान् यह बुढ़ापा कैसे
कटेगा? किसके द्वार पर भीख माँगेंगे?'
होरी की वह क्षणिक मृदुता यथार्थ की
इस आँच में जैसे झुलस गयी। लकड़ी सँभालता
हुआ बोला -- साठे तक पहुँचने की नौबत न
आने पायेगी धनिया! इसके पहले ही चल
देंगे।
धनिया ने तिरस्कार किया -- अच्छा
रहने दो, मत असुभ मुँह से निकालो। तुमसे कोई
अच्छी बात भी कहे, तो लगते हो कोसने।
होरी लाठी कन्धे पर रखकर घर से
निकला, तो धनिया द्वार पर खड़ी उसे देर तक
देखती रही। उसके इन निराशा-भरे शब्दों ने
धनिया के चोट खाये हुए हृदय में आतंकमय
कम्पन-सा डाल दिया था। वह जैसे अपने
नारीत्व के सम्पूऩर् तप और व्रत से अपने पति
को अभय-दान दे रही थी। उसके अन्तःकरण से
जैसे आशीर्वादों का व्यूह-सा निकल कर होरी को
अपने अन्दर छिपाये लेता था। विपन्नता के इस
अथाह सागर में सोहाग ही वह तृण था, जिसे
पकड़े हुए वह सागर को पार कर रही थी। इन
असंगत शब्दों ने यथार्थ के निकट होने पर भी
मानो झटका देकर उसके हाथ से वह तिनके का
सहारा छीन लेना चाहा बल्कि यथार्थ के निकट
होने के कारण ही उनमें इतनी वेदना-शक्ति आ
गयी थी। काना कहने से काने को जो दुःख होता
है, वह क्या दो आँखोंवाले आदमी को हो सकता
है?
होरी क़दम बढ़ाये चला जाता था।
पगडंडी के दोनों ओर ऊख के पौधों की लहराती
हुई हरियाली देख कर उसने मन में कहा --
भगवान् कहीं गौं से बरखा कर दें और डाँड़ी भी
सुभीते से रहे, तो एक गाय ज़रूर लेगा। देशी
गायें तो न दूध दें न उनके बछवे ही किसी काम
के हों। बहुत हुआ तो तेली के कोल्हू में चले।
नहीं, वह पछाईं गाय लेगा। उसकी ख़ूब सेवा
करेगा। कुछ नहीं तो चार-पाँच सेर दूध होगा।
गोबर दूध के लिए तरस-तरस कर रह जाता है।
इस उमिर में न खाया-पिया, तो फिर कब
खायेगा। साल-भर भी दूध पी ले, तो देखने
लायक़ हो जाय। बछवे भी अच्छे बैल निकलेंगे। दो
सौ से कम की गोंई न होगी। फिर, गऊ से ही
तो द्वार की सोभा है। सबेरे-सबेरे गऊ के दर्शन हो
जायँ तो क्या कहना। न जाने कब यह साध पूरी
होगी, कब वह शुभ दिन आयेगा!
हर एक गृहस्थ की भाँति होरी के मन
में भी गऊ की लालसा चिरकाल से संचित चली
आती थी। यही उसके जीवन का सबसे बड़ा
स्वप्न, सबसे बड़ी साध थी। बैंक सूद से चैन
करने या ज़मीन ख़रीदने या महल बनवाने की
विशाल आकांक्षाएँ उसके नन्हें-से हृदय में कैसे
समातीं।
जेठ का सूर्य आमों के झुरमुट में से
निकलकर आकाश पर छायी हुई लालिमा को अपने
रजत-प्रताप से तेज प्रदान करता हुआ ऊपर चढ़
रहा था और हवा में गमीर् आने लगी थी। दोनों
ओर खेतों में काम करनेवाले किसान उसे देखकर
राम-राम करते और सम्मान-भाव से चिलम पीने
का निमन्त्रण देते थे; पर होरी को इतना
अवकाश कहाँ था। उसके अन्दर बैठी हुई
सम्मान-लालसा ऐसा आदर पाकर उसके सूखे मुख
पर गर्व की झलक पैदा कर रही थी। मालिकों
से मिलते-जुलते रहने ही का तो यह प्रसाद है कि
सब उसका आदर करते हैं। नहीं उसे कौन पूछता?
पाँच बीघे के किसान की बिसात ही क्या? यह
कम आदर नहीं है कि तीन-तीन, चार-चार
हलवाले महतो भी उसके सामने सिर झुकाते हैं।
अब वह खेतों के बीच की पगडंडी
छोड़कर एक खलेटी में आ गया था, जहाँ बरसात
में पानी भर जाने के कारण तरी रहती थी और
जेठ में कुछ हरियाली नज़र आती थी।
आस-पास के गाँवों की गउएँ यहाँ चरने आया
करती थीं। उस समय में भी यहाँ की हवा में कुछ
ताज़गी और ठंडक थी। होरी ने दो-तीन साँसें ज़ोर
से लीं। उसके जी में आया, कुछ देर यहीं बैठ
जाय। दिन-भर तो लू-लपट में मरना है ही।
कई किसान इस गड्ढे का पट्टा लिखाने को तैयार
थे। अच्छी रक़म देते थे; पर ईश्वर भला करे राय
साहब का कि उन्होंने साफ़ कह दिया, यह
ज़मीन जानवरों की चराई के लिए छोड़ दी गयी है
और किसी दाम पर भी न उठायी जायगी। कोई
स्वार्थी ज़मींदार होता, तो कहता, गायें जायँ
भाड़ में, हमें रुपए मिलते हैं, क्यों छोड़ें। पर
राय साहब अभी तक पुरानी मयार्दा निभाते आते
हैं। जो मालिक प्रजा को न पाले, वह भी कोई
आदमी है?
सहसा उसने देखा, भोला अपनी गायें
लिये इसी तरफ़ चला आ रहा है। भोला इसी
गाँव से मिले हुए पुरवे का ग्वाला था और
दूध-मक्खन का व्यवसाय करता था। अच्छा दाम
मिल जाने पर कभी-कभी किसानों के हाथ गायें
बेच भी देता था। होरी का मन उन गायों को देख
कर ललचा गया। अगर भोला वह आगेवाली गाय
उसे दे तो क्या कहना! रुपए आगे पीछे देता
रहेगा। वह जानता था घर में रुपए नहीं हैं,
अभी तक लगान नहीं चुकाया जा सका, बिसेसर
साह का देना भी बाक़ी है, जिस पर आने रुपए
का सूद चढ़ रहा है; लेकिन दरिद्रता में जो एक
प्रकार की अदूरदशिर्ता होती है, वह निर्लज्जता
जो तक़ाज़े, गाली और मार से भी भयभीत नहीं
होती, उसने उसे प्रोत्साहित किया। बरसों से जो
साध मन को आन्दोलित कर रही थी, उसने उसे
विचलित कर दिया। भोला के समीप जाकर बोला
-- राम-राम भोला भाई, कहो क्या रंग-ढंग
है। सुना अबकी मेले से नयी गायें लाये हो।
भोला ने रूखाई से जवाब दिया। होरी
के मन की बात उसने ताड़ ली थी -- हाँ, दो
बछियें और दो गायें लाया। पहलेवाली गायें सब
सूख गयी थीं। बँधी पर दूध न पहुँचे तो गुज़र
कैसे हो। होरी ने आनेवाली गाय के पुट्ठे पर हाथ
रखकर कहा -- दुधार तो मालूम होती है।
कितने में ली ?
भोला ने शान जमायी -- अबकी
बाज़ार बड़ा तेज़ रहा महतो, इसके अस्सी रुपए
देने पड़े। आँखें निकल गयीं। तीस-तीस रुपए तो
दोनों कलोरों के दिये। तिस पर गाहक रुपए का
आठ सेर दूध माँगता है।
'बड़ा भारी कलेजा है तुम लोगों
का भाई, लेकिन फिर लाये भी तो वह माल कि
यहाँ दस-पाँच गाँवों में तो किसी के पास
निकलेगी नहीं। '
भोला पर नशा चढ़ने लगा। बोला --
राय साहब इसके सौ रुपए देते थे। दोनों कलोरों के
पचास-पचास रुपए, लेकिन हमने न दिये।
भगवान् ने चाहा, तो सौ रुपए इसी ब्यान में
पीट लूँगा। ' इसमें क्या सन्देह है भाई !
मालिक क्या खाके लेंगे। नज़राने में मिल जाय,
तो भले ले लें। यह तुम्हीं लोगों का गुदार् है कि
अँजुली-भर रुपए तक़दीर के भरोसे गिन देते हो।
यही जी चाहता है कि इसके दरसन करता रहूँ।
धन्य है तुम्हारा जीवन कि गउओं की इतनी सेवा
करते हो। हमें तो गाय का गोबर भी मयस्सर
नहीं। गिरस्त के घर में एक गाय भी न हो, तो
कितनी लज्जा की बात है। साल-के-साल बीत
जाते हैं, गोरस के दरसन नहीं होते। घरवाली
बार-बार कहती है, भोला भैया से क्यों नहीं
कहते। मैं कह देता हूँ, कभी मिलेंगे तो कहूँगा।
तुम्हारे सुभाव से बड़ी परसन रहती है। कहती
है, ऐसा मर्द ही नहीं देखा कि जब बातें करेंगे,
नीची आँखें करके, कभी सिर नहीं उठाते। '
भोला पर जो नशा चढ़ रहा था, उसे
इस भरपूर प्याले ने और गहरा कर दिया। बोला
-- भला आदमी वही है, जो दूसरों की
बहू-बेटी को अपनी बहू-बेटी समझे। जो दुष्ट
किसी मेहरिया की ओर ताके, उसे गोली मार
देना चाहिए।
'यह तुमने लाख रुपये की बात
कह दी भाई। बस सज्जन वही, जो दूसरों की
आबरू को अपनी आबरू समझे। '
'जिस तरह मर्द के मर जाने से
औरत अनाथ हो जाती है, उसी तरह औरत के
मर जाने से मर्द के हाथ-पाँव टूट जाते हैं। मेरा
तो घर उजड़ गया महतो, कोई एक लोटा पानी
देनेवाला भी नहीं। '
गत वर्ष भोला की स्त्री लू लग जाने से
मर गयी थी। यह होरी जानता था, लेकिन
पचास बरस का खंखड़ भोला भीतर से इतना
स्निग्ध है, वह न जानता था। स्त्री की लालसा
उसकी आँखों में सजल हो गयी थी। होरी को
आसन मिल गया। उसकी व्यावहारिक कृषक-बुद्धि
सजग हो गयी।
'पुरानी मसल झूठी थोड़ी है --
बिन घरनी घर भूत का डेरा। कहीं सगाई नहीं
ठीक कर लेते? '
'ताक में हूँ महतो, पर कोई
जल्दी फँसता नहीं। सौ-पचास ख़रच करने को भी
तैयार हूँ। जैसी भगवान् की इच्छा। '
'अब मैं भी फ़िर्क में रहूँगा।
भगवान् चाहेंगे, तो जल्दी घर बस जायगा। '
'बस यही समझ लो कि उबर
जाऊँगा भैया! घर में खाने ashutosगवान् का
दिया बहुत है। चार पसेरी रोज़ दूध हो जाता है,
लेकिन किस काम का। '
'मेरे ससुराल में एक मेहरिया है।
तीन-चार साल हुए, उसका आदमी उसे
छोड़-कर कलकत्ते चला गया। बेचारी पिसाई करके
गुज़र कर रही है। बाल-बच्चा भी कोई नहीं।
देखने-सुनने में अच्छी है। बस, लच्छमी समझ
लो। '
भोला का सिकुड़ा हुआ चेहरा जैसे
चिकना गया। आशा में कितनी सुधा है। बोला --
अब तो तुम्हारा ही आसरा है महतो! छुट्टी
हो, तो चलो एक दिन देख आयें।
'मैं ठीक-ठाक करके तब तुमसे
कहूँगा। बहुत उतावली करने से भी काम बिगड़
जाता है। '
'जब तुम्हारी इच्छा हो तब चलो।
उतावली काहे की। इस कबरी पर मन ललचाया
हो, तो ले लो। '
'यह गाय मेरे मान की नहीं है
दादा। मैं तुम्हें नुक़सान नहीं पहुँचाना चाहता।
अपना धरम यह नहीं है कि मित्रों का गला दबायें।
जैसे इतने दिन बीते हैं, वैसे और भी बीत
जायेंगे। '
'तुम तो ऐसी बातें करते हो
होरी, जैसे हम-तुम दो हैं। तुम गाय ले
जाओ, दाम जो चाहे देना। जैसे मेरे घर रही,
वैसे तुम्हारे घर रही। अस्सी रुपए में ली थी,
तुम अस्सी रुपये ही दे देना। जाओ। '
'लेकिन मेरे पास नगद नहीं है
दादा, समझ लो। '
'तो तुमसे नगद माँगता कौन है
भाई!'
होरी की छाती गज़-भर की हो गयी।
अस्सी रुपए में गाय मँहगी न थी। ऐसा अच्छा
डील-डौल, दोनों जून में छः-सात सेर दूध,
सीधी ऐसी कि बच्चा भी दुह ले। इसका तो
एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा। द्वार पर
बँधेगी तो द्वार की शोभा बढ़ जायगी। उसे अभी
कोई चार सौ रुपए देने थे; लेकिन उधार को वह
एक तरह से मुफ़्त समझता था। कहीं भोला की
सगाई ठीक हो गयी तो साल दो साल तो वह
बोलेगा भी नहीं। सगाई न भी हुई, तो होरी का
क्या बिगड़ता है। यही तो होगा, भोला बार-बार
तगादा करने आयेगा, बिगड़ेगा, गालियाँ देगा।
लेकिन होरी को इसकी ज़्यादा शर्म न थी। इस
व्यवहार का वह आदी था। कृषक के जीवन का तो
यह प्रसाद है। भोला के साथ वह छल कर रहा था
और यह व्यापार उसकी मयार्दा के अनुकूल था।
अब भी लेन-देन में उसके लिए लिखा-पढ़ी होने
और न होने में कोई अन्तर न था। सूखे-बूड़े
की विपदाएँ उसके मन को भी, बनाये रहती थीं।
ईश्वर का रौद्र रूप सदैव उसके सामने रहता था।
पर यह छल उसकी नीति में छल न था। यह
केवल स्वार्थ-सिद्धि थी और यह कोई बुरी बात न
थी। इस तरह का छल तो वह दिन-रात करता
रहता था। घर में दो-चार रुपये पड़े रहने पर
भी महाजन के सामने क़स्में खा जाता था कि एक
पाई भी नहीं है। सन को कुछ गीला कर देना और
रुई में कुछ बिनौले भर देना उसकी नीति में
जायज था। और यहाँ तो केवल स्वार्थ न था,
थोड़ा-सा मनोरंजन भी था। बुड्ढों का बुढ़भस
हास्यास्पद वस्तु है और ऐसे बुड्ढों से अगर कुछ
ऐंठ भी लिया जाय, तो कोई दोष-पाप नहीं।
भोला ने गाय की पगहिया होरी के हाथ
में देते हुए कहा -- ले जाओ महतो, तुम भी
याद करोगे। ब्याते ही छः सेर दूध ले लेना।
चलो, मैं तुम्हारे घर तक पहुँचा दूँ। साइत तुम्हें
अनजान समझकर रास्तों में कुछ दिक करे। अब
तुमसे सच कहता हूँ, मालिक नब्बे रुपए देते
थे, पर उनके यहाँ गउओं की क्या क़दर। मुझसे
लेकर किसी हाकिम-हुक्काम को दे देते।
हाकिमों को गऊ की सेवा से मतलब। वह तो ख़ून
चूसना-भर जानते हैं। जब तक दूध देती,
रखते, फिर किसी के हाथ बेच देते। किसके
पल्ले पड़ती कौन जाने। रुपया ही सब कुछ नहीं है
भैया, कुछ अपना धरम भी तो है। तुम्हारे घर
आराम से रहेगी तो। यह न होगा कि तुम आप
खाकर सो रहो और गऊ भूखी खड़ी रहे। उसकी
सेवा करोगे, चुमकारोगे। गऊ हमें आसिरवाद
देगी। तुमसे क्या कहूँ भैया, घर में चंगुल भर भी
भूसा नहीं रहा। रुपए सब बाज़ार में निकल
गये। सोचा था महाजन से कुछ लेकर भूसा ले
लेंगे; लेकिन महाजन का पहला ही नहीं चुका।
उसने इनकार कर दिया। इतने जानवरों को क्या
खिलावें, यही चिन्ता मारे डालती है।
चुटकी-चुटकी भर खिलाऊँ, तो मन-भर रोज़ का
ख़रच है। भगवान् ही पार लगायें तो लगे।
होरी ने सहानुभूति के स्वर में कहा --
तुमने हमसे पहले क्यों नहीं कहा? हमने एक
गाड़ी भूसा बेच दिया।
भोला ने माथा ठोककर कहा --
इसीलिए नहीं कहा भैया कि सबसे अपना दुःख
क्यों रोऊँ। बाँटता कोई नहीं, हँसते सब हैं। जो
गायें सूख गयी हैं उनका ग़म नहीं, पत्ती-सत्ती
खिलाकर जिला लूँगा; लेकिन अब यह तो रातिब
बिना नहीं रह सकती। हो सके, तो दस-बीस
रुपये भूसे के लिए दे दो।
किसान पक्का स्वार्थी होता है, इसमें
सन्देह नहीं। उसकी गाँठ से रिश्वत के पैसे बड़ी
मुश्किल से निकलते हैं, भाव-ताव में भी वह
चौकस होता है, ब्याज की एक-एक पाई छुड़ाने
के लिए वह महाजन की घंटों चिरौरी करता है,
जब तक पक्का विश्वास न हो जाय, वह किसी
के फुसलाने में नहीं आता, लेकिन उसका सम्पूर्ण
जीवन प्रकृति से स्थायी सहयोग है। वृक्षों में फल
लगते हैं, उन्हें जनता खाती है; खेती में
अनाज होता है, वह संसार के काम आता है;
गाय के थन में दूध होता है, वह ख़ुद पीने नहीं
जाती दूसरे ही पीते हैं; मेघों से वषार् होती है,
उससे पृथ्वी तृप्त होती है। ऐसी संगति में
कुत्सित स्वार्थ के लिए कहाँ स्थान। होरी किसान
था और किसी के जलते हुए घर में हाथ सेंकना
उसने सीखा ही न था।
भोला की संकट-कथा सुनते ही उसकी
मनोवृत्ति बदल गयी। पगहिया को भोला के हाथ में
लौटाता हुआ बोला -- रुपए तो दादा मेरे पास
नहीं हैं, हाँ थोड़ा-सा भूसा बचा है, वह तुम्हें
दूँगा। चलकर उठवा लो। भूसे के लिए तुम गाय
बेचोगे, और मैं लूँगा। मेरे हाथ न कट जायेंगे?
भोला ने आर्द्र कंठ से कहा -- तुम्हारे
बैल भूखों न मरेंगे! तुम्हारे पास भी ऐसा
कौन-सा बहुत-सा भूसा रखा है।
'नहीं दादा, अबकी भूसा अच्छा
हो गया था।'
'मैंने तुमसे नाहक़ भूसे की चर्चा
की। '
'तुम न कहते और पीछे से मुझे
मालूम होता, तो मुझे बड़ा रंज होता कि तुमने
मुझे इतना ग़ैर समझ लिया। अवसर पड़ने पर
भाई की मदद भाई भी न करे, तो काम कैसे
चले।'
'मुदा यह गाय तो लेते जाओ। '
'अभी नहीं दादा, फिर ले लूँगा।'
'तो भूसे के दाम दूध में कटवा
लेना। '
होरी ने दुःखित स्वर में कहा --
दाम-कौड़ी की इसमें कौन बात है दादा, मैं
एक-दो जून तुम्हारे घर खा लूँ, तो तुम मुझसे
दाम माँगोगे?
' लेकिन तुम्हारे बैल भूखों मरेंगे
कि नहीं? '
' भगवान् कोई-न-कोई सबील
निकालेंगे ही। असाढ़ सिर पर है। कड़बी बो
लूँगा। '
' मगर यह गाय तुम्हारी हो
गयी। जिस दिन इच्छा हो आकर ले जाना। '
' किसी भाई का निलाम पर
चढ़ा हुआ बैल लेने में जो पाप है, वह इस
समय तुम्हारी गाय लेने में है। '
होरी में बाल की खाल निकालने की
शक्ति होती, तो वह ख़ुशी से गाय लेकर घर की
राह लेता। भोला जब नक़द रुपए नहीं माँगता तो
स्पष्ट था कि वह भूसे के लिए गाय नहीं बेच रहा
है, बल्कि इसका कुछ और आशय है; लेकिन
जैसे पत्तों के खड़कने पर घोड़ा अकारण ही ठिठक
जाता है और मारने पर भी आगे क़दम नहीं उठाता
वही दसा होरी की थी। संकट की चीज़ लेना पाप
है, यह बात जन्म-जन्मान्तरों से उसकी आत्मा
का अंश बन गयी थी।
भोला ने गद् गद कंठ से कहा -- तो
किसी को भेज दूँ भूसे के लिए?
होरी ने जवाब दिया -- अभी मैं राय
साहब की डयोढ़ी पर जा रहा हूँ। वहाँ से घड़ी-भर
में लौटूँगा, तभी किसी को भेजना।
भोला की आँखों में आँसू भर आये।
बोला -- तुमने आज मुझे उबार लिया होरी
भाई! मुझे अब मालूम हुआ कि मैं संसार में
अकेला नहीं हूँ। मेरा भी कोई हितू है। एक क्षण के
बाद उसने फिर कहा -- उस बात को भूल न
जाना।
होरी आगे बढ़ा, तो उसका चित्त
प्रसन्न था। मन में एक विचित्र स्फूतिर् हो रही
थी। क्या हुआ, दस-पाँच मन भूसा चला
जायगा, बेचारे को संकट में पड़ कर अपनी गाय
तो न बेचनी पड़ेगी। जब मेरे पास चारा हो
जायगा, तब गाय खोल लाऊँगा। भगवान् करें,
मुझे कोई मेहरिया मिल जाय। फिर तो कोई बात
ही नहीं।
उसने पीछे फिर कर देखा। कबरी गाय
पूँछ से मक्खियाँ उड़ाती, सिर हिलाती,
मस्तानी, मन्द-गति से झूमती चली जाती थी,
जैसे बाँदियों के बीच में कोई रानी हो। कैसा शुभ
होगा वह दिन, जब यह कामधेनु उसके द्वार पर
बँधेगी!
स्वामी विवेकानंद के व्याख्यान
922
1868
2005-05-01T04:43:21Z
संजय
8
/* स्वामी विवेकानंद */
==विश्व धर्म सभा, शिकागो 1893==
[[धर्म महासभा: स्वागत भाषण का उत्तर]] -11 सित. 1893
[[हमारे मतभेद का कारण]] 15 सित. 1893
[[हिन्दू धर्म]] 19 सित. 1893
[[धर्म भारत की प्रधान आवश्यकता नहीं]] 20 सित. 1893
[[बौद्ध धर्म]] 26 सित. 1893
[[धन्यवाद भाषण]] 27 सित.1893
धर्म महासभा: स्वागत भाषण का उत्तर
923
1869
2005-05-01T04:44:29Z
संजय
8
अमेरिकावासी बहनो तथा भाईयो,
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सब से प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
मैं इस मंच पर से बोलनेवाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया हैं कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैं, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया हैं। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था । ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने महान् जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा हैं। भाईयो, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:
रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।
- ' जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।'
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक हैं, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत् के प्रति उसकी घोषणा हैं:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।
- ' जो कोई मेरी ओर आता हैं - चाहे किसी प्रकार से हो - मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।'
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये बीभत्स दानवी न होती, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता । पर अब उनका समय आ गया हैं, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई हैं, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्युनिनाद सिद्ध हो।
हमारे मतभेद का कारण
924
1870
2005-05-01T04:46:17Z
संजय
8
मैं आप लोगों को एक छोटी सी कहानी सुनाता हूँ। अभी जिन वाग्मी वक्तामहोदय ने व्याख्यान समाप्त किया हैं, उनके इस वचन को आप ने सुना हैं कि ' आओ, हम लोग एक दूसरे को बुरा कहना बंद कर दें', और उन्हे इस बात का बड़ा खेद हैं कि लोगों में सदा इतना मतभेद क्यों रहता हैं ।
परन्तु मैं समझता हूँ कि जो कहानी मैं सुनाने वाला हूँ, उससे आप लोगों को इस मतभेद का कारण स्पष्ट हो जाएगा । एक कुएँ में बहुत समय से एक मेढ़क रहता था । वह वहीं पैदा हुआ था और वहीं उसका पालन-पोषण हुआ, पर फिर भी वह मेढ़क छोटा ही था । धीरे- धीरे यह मेढ़क उसी कुएँ में रहते रहते मोटा और चिकना हो गया । अब एक दिन एक दूसरा मेढ़क, जो समुद्र में रहता था, वहाँ आया और कुएँ में गिर पड़ा ।
"तुम कहाँ से आये हो?"
"मैं समुद्र से आया हूँ।"
"समुद्र! भला कितना बड़ा हैं वह? क्या वह भी इतना ही बड़ा हैं, जितना मेरा यह कुआँ?" और यह कहते हुए उसने कुएँ में एक किनारे से दूसरे किनारे तक छलाँग मारी।
समुद्र वाले मेढ़क ने कहा, "मेरे मित्र! भला, सुमद्र की तुलना इस छोटे से कुएँ से किस प्रकार कर सकते हो?"
तब उस कुएँ वाले मेढ़क ने दूसरी छलाँग मारी और पूछा, "तो क्या तुम्हारा समुद्र इतना बड़ा हैं?"
समुद्र वाले मेढ़क ने कहा, "तुम कैसी बेवकूफी की बात कर रहे हो! क्या समुद्र की तुलना तुम्हारे कुएँ से हो सकती हैं?"
अब तो कुएँवाले मेढ़क ने कहा, "जा, जा! मेरे कुएँ से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता। संसार में इससे बड़ा और कुछ नहीं हैं! झूठा कहीं का? अरे, इसे बाहर निकाल दो।"
यही कठिनाई सदैव रही हैं।
मैं हिन्दू हूँ। मैं अपने क्षुद्र कुएँ में बैठा यही समझता हूँ कि मेरा कुआँ ही संपूर्ण संसार हैं। ईसाई भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठे हुए यही समझता हूँ कि सारा संसार उसी के कुएँ में हैं। और मुसलमान भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठा हुए उसी को सारा ब्रह्माण्डमानता हैं। मैं आप अमेरिकावालों को धन्य कहता हूँ, क्योकि आप हम लोगों के इनछोटे छोटे संसारों की क्षुद्र सीमाओं को तोड़ने का महान् प्रयत्न कर रहे हैं, और मैं आशा करता हूँ कि भविष्य में परमात्मा आपके इस उद्योग में सहायता देकर आपका मनोरथ पूर्ण करेंगे ।
हिन्दू धर्म
925
1871
2005-05-01T04:49:15Z
संजय
8
प्रागैतिहासिक युग से चले आने वाले केवल तीन ही धर्म आज संसार में विद्यमान हैं - हिन्दू धर्म, पारसी धर्म और यहूदी धर्म । उनको अनेकानेक प्रचण्ड आघात सहने पड़े हैं, किन्तु फिर भी जीवित बने रहकर वे अपनी आन्तरिक शक्ति का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं । पर जहाँ हम यह देखते हैं कि यहूदी धर्म ईसाई धर्म को आत्मसात् नहीं कर सका, वरन् अपनी सर्वविजयिनी दुहिता - ईसाई धर्म - द्वारा अपने जन्म स्थान से निर्वासित कर दिया गया, और केवल मुट्ठी भर पारसी ही अपने महान् धर्म की गाथा गाने के लिए अब अवशिष्ट हैं, - वबाँ भारत में एक के बाद एक न जाने कितने सम्प्रदायों का उदय हुआ और उन्होंने वैदिक धर्म को जड़ से हिला दिया ; किन्तु भयंकर भूकम्प के समय समुद्रतट के जल के समान वह कुछ समय पश्चात् हजार गुना बलशाली होकर सर्वग्रासी आप्लावन के रूप में पुनः लौटने के लिए पीछे हट गया ; और जब यह सारा कोलाहल शान्त हो गया, तब इन समस्त धर्म-सम्प्रदायों को उनकी धर्ममाता ( हिन्दू धर्म ) की विराट् काया ने चूस लिया, आत्मसात् कर लिया और अपने में पचा डाला ।
वेदान्त दर्शन की अत्युच्च आध्यात्मिक उड़ानों से लेकर -- आधुनिक विज्ञान के नवीनतम आविष्कार जिसकी केवल प्रतिध्वनि मात्र प्रतीत होते हैं, मूर्तिपूजा के निम्नस्तरीय विचारों एवं तदानुषंगिक अनेकानेक पौराणिक दन्तकथाओं तक, और बौद्धौं के अज्ञेयवाद तथा जैमों के निरीश्वरवाद -- इनमें से प्रत्येक के लिए हिन्दू धर्म में स्थान हैं ।
तब यह प्रश्न उठता हैं कि वह कौन सा सामान्य बिन्दु हैं, जहाँ पर इतनी विभिन्न दिशाओं में जानेवाली त्रिज्याएँ केन्द्रस्थ होती हैं ? वह कौन सा एक सामान्य आधार हैं जिस पर ये प्रचण्ड विरोधाभास आश्रित हैं? इसी प्रश्न का उत्तर देने का अब मैं प्रयत्न करूँगा ।
हिन्दू जाति ने अपना धर्म श्रुति -- वेदों से प्राप्त किया हैं । उसकी धारणा हैं कि वेद अनादि और अनन्त हैं ः श्रोताओ को, सम्भव हैं, यब बात हास्यास्पद लगे कि कोई पुस्तक अनादि और अनन्त कैसे हो सकती हैं । किन्तु वेदों का अर्थ कोई पुस्तक हैं ही नहीं । वेदों का अर्थ हैं , भिन्न भिन्न कालों में भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष । जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत मनुष्यों के पता लगने से पूर्व भी अपना काम करता चला आया था और आज यदि मनुष्यजाति उसे भूल जाए, तो भी वब न्यम अपना काम करता रहेगा , ठीक वबी बात आध्यात्मिक जगत् का शालन करनेवाले नियमों के सम्बन्ध में भी हैं । एक आत्मा का दूसरी आत्मा के साथ और जीवात्मा का आत्माओं के परम पिता के साथ जो नैतिक तथा आध्यात्मिक सम्बन्ध हैं, वे उनके आविष्कार के पूर्व भी थे और हम यदि उन्हें भूल भी जाएँ, तो बने रहेंगे ।
इव नियमों या सत्यों का आविष्कार करनेवाले ऋषि कहलाते हैं और हम उनको पूर्णत्व तक पहुँची हुई आत्मा मानकर सम्मान देते हैं । श्रोताओं को यह बतलाते हुए मुझे हर्ष होता हैं कि इन महानतम ऋषियों में कुछ स्त्रियाँ भी थीं ।
यहाँ यह कहा जा सकता हैं कि ये नियम, नियम के रूप में अनन्त भले ही हैं, पर इनका आदि तो अवश्य ही होना चाहिए । वेद हमें यह सिखाते हैं कि सृष्टि का न आदि हैं न अन्त । विज्ञान ने हमें सिद्ध कर दिखाया हैं कि समग्र विश्व की सारी ऊर्जा-समष्टि का परिमाण सदा एक सा रहता हैं । तो फिर, यदि ऐसा कोई समय था , जब कि किसी वस्तु का आस्तित्व ही नहीं था , उस समय यह सम्पूर्ण ऊर्जा कहाँ थी ? कोई कोई कहता हैं कि ईश्वर में ही वह सब अव्यक्त रूप में निहित थी । तब तो ईश्वर कभी अव्यक्त और कभी व्यक्त हैं; इससे तो वह विकारशील हो जाएगा । प्रत्येक विकारशील पदार्थ यौगिक होता हैं और हर यौगिक पदार्थ में वह परिवर्तन अवश्वम्भावी हैं, जिसे हम विनाश कहते हैं। इस तरह तो ईश्वर की मृत्यु हो जाएगी, जो अनर्गल हैं । अतः ऐसा समय कभी नहीं था, जब यह सृष्टि नहीं थी ।
मैं एक उपमा दूँ; स्रष्टा और सृष्टि मानो दो रेखाएँ हैं, जिनका न आदि हैं , न अन्त, और जो समान्तर चलती हैं। ईश्वर नित्य क्रियाशील विधाता हैं, जिसकी शक्ति से प्रलयपयोधि में से नित्यशः एक के बाद एक ब्रह्माण्ड का सृजन होता हैं, वे कुछ काल तक गतिमान रहते हैं, और तत्पश्चात् वे पुनः विनष्ट कर दिये जाते हैं । ' सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वकल्पयत् ' अर्थात इस सूर्य और इस चन्द्रमा को विधाता ने पूर्व कल्पों के सूर्य और चन्द्रमा के समान निर्मित किया हैं -- इस वाक्य का पाठ हिन्दू बालक प्तिदिन करता हैं ।
यहाँ पर मैं खड़ा हूँ और अपनी आँकें बन्द करके यदि अपने अस्तित्व -- 'मैं', 'मैं', 'मैं' को समझने का प्रयत्न करूँ , तो मुझमे किस भाव का उदय होता हैं ? इस भाव का कि मैं शरीर हूँ । तो क्या मैं भौतिक पदार्थों के संघात के सिवा और कुछ नहीं हूँ ? वेदों की घोषणा हैं -- 'नहीं, मैं शरीर में रहने वाली आत्मा हूँ , मैं शरीर नहीं हूँ । शरीर मर जाएगा, पर मैं नहीं मरूँगा । मैं इस शरीर में विद्यमान हूँ और इस शरीर का पतन होगा, तब भी मैं विद्यमान रहूँगा ही । मेरा एक अतीत भी हैं ।' आत्मा की सृष्टि नहीं हुई हैं, क्योकि सृष्टि का अर्थ हैं, भिन्न भिन्न द्रव्यों का संघात, और इस संघात का भविष्य में विघटन अवश्यम्भावी हैं । अतएव यदि आत्मा का सृजन हुआ, तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिए । कुछ लोग जन्म से ही सुखी होता हैं और पूर्ण स्वास्थ्य का आनन्द भोगते हैं, उन्हे सुन्दर शरीर , उत्साहपूर्ण मन और सभी आवश्यक सामग्रियाँ प्रप्त रहती हैं । दूसरे कुछ लोग जन्म से ही दुःखी होते हैं, किसी के हाथ या पाँव नहीं होते , तो कोऊ मूर्ख होते हैं, और येन केन प्रकारेण अपने दुःखमय जीवन के दिन काटते हैं। ऐसा क्यों ? यदि सभी एक ही न्यायी और दयालु ईश्वर ने उत्पन्न किये हों , तो फिर उसने एक को सुखी और दुसरे को दुःखी क्यों बनाया ? ईश्वर ऐसा पक्षपाती क्यों हैं ? फिर ऐसा मानने से बात नहीं सुधर सकती कि जो वर्तमान जीवनदुःखी हैं, भावी जीवन में पूर्ण सुखी रहेंगे । न्यायी और दयालु ईश्वर के राज्य में मनुष्य इस जीवन मे भी दुःखी क्यों रहे ?
दूसरी बात यह हैं कि सृष्टि - उत्पादक ईश्वर को मान्यता देनेवाला सिद्धान्त वैषम्य की कोई व्याख्या महीं करता, बल्कि वह तो केवल एक सर्नशक्तिमान् पुरुष का निष्ठुर आदेश ही प्रकट करता हैं। अतएव इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही चाहिए, जिनके फलस्वरुप मनुष्य इस जन्म में सुखी या दुःखी हुआ करते हैं । और ये कारण हैं, उसके ही पुर्वनुष्ठित कर्म ।
क्या मनुष्य के शरीर और मन की सारी प्रवृत्तियों की व्याख्या उत्तराधिकार से प्राप्त क्षमता द्वारा नहीं हो सकती ? यहाँ जड़ और चैतन्य (मन) , सत्ता की दो समानान्तर रेखाएँ हैं । यदि जड़ और जड़ के समस्त रूपान्तर ही, जो कुछ यहाँ उसके कारण सिद्ध हो सकते, तो पिर आत्मा के अस्तित्व को मानने की कोई आवश्यकता ही न रह जाती । पर यह सिद्ध महीं किया जा सकता कि चैतन्य (विचार) का विकास जड़ से हुआ हैं, और यदि कोई दार्शनिक अद्वैतवाद अनिवार्य हैं, तो आध्यात्मिक अद्वैतवाद निश्चय ही तर्कसंगत हैं और भौतिक अद्वैतवाद से किसी भी प्रकार कम वाँछनीय नहीं; परन्तु यहाँ इन दोनों की आवश्यकता नहीं हैं ।
हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते कि शरीर कुछ प्रवृत्तियों को आनुवंशिकता से प्राप्त करता हैं ; किन्तुु ऐसी प्रवृत्तियों का अर्थ केवल शरीरिक रूपाकृति सहैं, जिसके माध्यम से केवल एक विशेष मन एक विशेष प्रकार से काम कर सकता हैं । आत्मा की कुछ ऐसी विशेष प्रकृत्तियाँ होती हैं, जिसकी उत्पत्ति अतीत के ॉह०९१५र्म से होती हैं । एक विशेष प्रवृत्तिवाली जीवात्मा ' योग्यं योग्येन युज्यते ' इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करती हैं, जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सब से उपयुक्त आधार हो । यह विज्ञानसंगत हैं, क्योंकि विज्ञान हर प्रवृत्ति की व्याख्या आदत से करमा चाहता हैं , और आदत आवृत्तियों से वनती हैं । अतएव नवजात जीवात्मा की नैसर्गिक आदतों की व्याख्या के लिए आवृत्तियाँ अनिवार्य हो जाती हैं । और चूँकि वे प्रस्तुत जीवन में प्राप्त नहीं होती, अतः वे पिछले जीवनों से ही आयी होंगी ।
एक और दृष्टिकोण हैं । ये सभी बातें यदि स्वयंसिद्ध भी मान लें , तो में अपने पूर्व जन्म की कोई बात स्मरण क्यों नहीं रख पाता ? इसका समाधान सरल हैं । मैं अभी अंग्रेजी बोल रहा हीँ । वह मेरी मातृ भाषा नहीं हैं । वस्तुतः इस समय मेरी मातृभाषा का कोई भी शब्द मेरे चित्त में उपस्थित नहीं हैं , पर उन शब्दों को सामने लोने का थोड़ा प्रयत्न करते ही वे मन में उमड़ आते हैं । इससे यही सिद्ध होता बैं कि चेतना मानससागर की सतह मात्र हैं और भीतर, उसकी गहराई में, हमारी समस्त अनुभवराशि संचित हैं । केवल प्रयत्न और उद्यम किजिए, वे सब ऊपर उठ आएँगे । और आप अपने पूर्व जन्मों का भी ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे ।
यह प्रत्यक्ष एवं प्रतिपाद्य प्रमाण हैं । सत्यसाधन ही किसी परिकल्पना का पूर्ण प्रमाण होता हैं , और ऋषिगण यहाँ समस्त संसार को एक चुनौती दे रहे हैं । हमने उस रहस्य का पता लगा लिया हैं , जिससे स्मृतिसागर की गम्भीरतम गहराई तक मन्थन किया जा सकता हैं -- उसका प्रयोग कीजिए और आप अपने पूर्व जन्मों का सम्पूर्ण संस्मृति प्राप्त कर लेंगे ।
अतएव हिन्दू का यह विश्वास हैं कि वह आत्मा हैं । ' उसको शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि दग्ध नहीं कर सकती, जल भीगो नहीं सकता और वायु सुखा नही सकती । ' -- गीता ॥२.२३॥ हिन्दुओं की यह धारणा हैं कि आत्मा एक ऐसा वृत्त हैं जिसकी कोई परिधि नहीं हैं, किन्तु जिसका केन्द्र शरीर में अवस्थित हैं; और मृत्यु का अर्थ हैं, इस केन्द्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाना । यह आत्मा जड़ की उपाधियों से बद्ध नहीं हैं । वह स्वरूपतः नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव हैं । परन्तु किसी कारण से वह अपने को जड़ से बँधी हुई पाती हैं , और अपने को जड़ ही समझती हैं ।
अब दूसरा प्रश्न हैं कि यह विशुद्ध, पूर्ण और विमुक्त आत्मा इस प्रकार जड़ का दासत्व क्यों करती हैं ? स्वमं पूर्ण होते हुए भी इस आत्मा को अपूर्ण होनें का भ्रम कैसे हो जाता हैं? हनें यह बताया जाता हैं कि हिन्दू लोग इस प्रश्न से कतरा जाते हैं ऐर कह देते क् ऐसा प्रश्न हो ही नहीं सकता । कुछ विचारक पूर्णप्राय सत्ताओं की कल्पना कर लेते हैं और इस रिक्त को भरने के लिए बड़े हड़े वैज्ञानिक नामों का प्रयोग करते हैं । परन्तु नाम दे देना व्याख्या नहीं हैं । प्रश्न ज्यों का त्यों ही बना रहता हैं । पूर्ण ब्रह्म पूर्णप्राय अथवा अपूर्ण कैसे हो सकता हैं ; शुद्ध, निरपेक्ष ब्रह्म अपने स्वभाव को सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण भर भी परिवर्तित कैसे कर सकता हैं ? पर हिन्दू ईमानदार हैं । वह मिथ्या तर्क का सहारा नहीं लेना चाहता । पुरुषोचित रूप में इस प्रश्न का सामना करने का साहस वह रखता हैं, और इस प्रश्न का उत्तर देता हैं , "मैं नहीं जानता । मैं नहीं जानता कि पूर्ण आत्मा अपने को अपूर्ण कैसे समझने लगी, जड़पदार्थों के संयोग से अपने को जड़नियमाधीन कैसे मानने लगी। " पर इस सब के बावजूद तथ्य जो हैं , वही रहेगा । यह सभी की चेतना का एक तथ्य हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने को शरीर मानता हैं । हिन्दू इस बात की व्याख्या करने का प्रयत्न नहीं करता कि मनुष्य अपने को शरीर क्यों समझता हैं । ' यह ईश्वर की इच्छा हैे ', यह उत्तर कोई समाधान नहीं हैं । यह उत्तर हिन्दू के 'मैं नहीं जानता' के सिवा और कुछ नहीं हैं ।
अतएव मनुष्य की आत्मा अनादि और अमर हैं, पूर्ण और अनन्त हैं, और मृत्यु का अर्थ हैं -- एक शरीर से दूसरे शरीर में केवल केन्द्र-परिवर्तन । वर्तमान अवस्था हमारे पूर्वानुष्ठित कर्मों द्वारा निश्चित होती हैं और भविष्य, वर्तमान कर्मों द्वारा । आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र में लगातार घूमती हुई कभी ऊपर विकास करती हैं, कभी प्रत्यागमन करती हैं । पर यहाँ एक दूसरा प्रश्न उठता हैं -- क्या मनुष्य प्रचण्ड तूफान में ग्रस्त वह छोटी सी नौका हैं , जो एक क्षण किसी वेगवान तरंग के फेनिल शिखर पर चढ़ जाती हैं और दूसरे क्षण भयानक गर्त में नीचे ढकेल दी जाती हैं, अपने शुभ और अशुभ कर्मों की दया पर केवल इधर-उधर भटकती फिरती हैं ; क्या वह कार्य-कारण की सततप्रवाही, निर्मम, भीषण तथा गर्जनशील धारा में पड़ा हुआ अशक्त, असहाय भग्न पोत हैं, क्या वह उस कारणता के चक्र के नीचे पड़ा हुआ एक क्षुद्र शलभ हैं, जो विधवा के आँसुओं तथा अनाथ बालक की आहों की तनिक भी चिन्ता न करते हिए, अपने मार्ग में आनेवाली सभी वस्तुओं को कुचल डालता हैं ? इस प्रकार के विचार से अन्तःकरण काँप उठता हैं , पर यही प्रकृति का नियम हैं । तो फिर क्या कोई आशा ही नहीं हैं ? क्या इससे बचने का कोई मार्ग नहीं हैं ? -- यही करुण पुकार निराशाविह्वल हृदय के अन्तस्तल से उपर उठी और उस करुणामय के सिंहासन तक जा पहुँची । वहाँ से आशा तथा सान्त्वना की वाणी निकली और उसने एक वैदिक ऋषि को अन्तःस्फूर्ति प्रदान की , और उसने संसार के सामने खड़े होकर तूर्यस्वर में इस आनन्दसन्देश की घोषणा की : ' हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो ! मैंने उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया हैं, तो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है । केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो । दूसरा कोई पथ नहीं ।' -- श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २.५, ३-८ ॥ 'अमृत के पुत्रो ' -- कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन हैं यह ! बन्धुओ ! इसी मधुर नाम - अमृत के अधिकारी से - आपको सम्बोधित करूँ, आप इसकी आज्ञा मुझे दे । निश्चय ही हिन्दू आपको पापी कहना अस्वीकार करता हैं । आप ईश्वर की सन्तान हैं , अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं, आप इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं । आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप बैं , वह मानव स्वरूप पर घोर लांछन हैं । आप उठें ! हे सिंहो ! आएँ , और इस मिथ्या भ्रम को झटक कर दूर फेक दें की आप भेंड़ हैं । आप हैं आत्मा अमर, आत्मा मुक्त, आनन्दमय और नित्य ! आप जड़ नहीं हैं , आप शरीर नहीं हैं; जड़ तो आपका दास हैं , न कि आप हैं जड़ के दास ।
अतः वेद ऐसी घोषणा नहीं करते कि यह सृष्टि - व्यापार कतिपय निर्मम विधानों का सघात हैं , और न यह कि वह कार्य-कारण की अनन्त कारा हैं ; वरन् वे यह घोषित करते हैं कि इन सब प्राकृतिक नियमों के मूल नें , जड़तत्त्व और शक्ति के प्रत्येक अणु-परमाणु में ओतप्रोत वही एक विराजमान हैं, ' जिसके आदेश से वायु चलती हैं, अग्नि दहकती हैं, बादल बरसते हैं और मृत्यु पृथ्वी पर नाचती हैं। ' -- कठोपनिषद् ॥२.३.३॥
और उस पुरुषव का स्वरूप क्या हैं ?
वह सर्वत्र हैं, शुद्ध, निराकार, सर्वशक्तिमान् हैं, सब पर उसकी पूर्ण दया हैं । 'तू हमारा पिता हैं, तू हमारी माता हैं, तू हमारा परम प्रेमास्पद सखा हैं, तू ही सभी शक्तियों का मूल हैं; हमैं शक्ति दे । तू ही इन अखिल भुवनों का भार वहन करने वाला हैं; तू मुझे इस जीवन के क्षुद्र भार को वहन करने में सहायता दे ।' वैदिक ऋषियों ने यही गाया हैं । हम उसकी पूजा किस प्रकार करें ? प्रेम के द्वारा ।' ऐहिक तथा पारत्रिक समस्त प्रिय वस्तुओं से भी अधिक प्रिय जानकर उस परम प्रेमास्पद की पूजा करनी चाहिए ।'
वेद हमें प्रेम के सम्वन्ध में इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं । अब देखें कि श्रीकृष्ण ने, जिन्हें हिन्दू लोग पृथ्वी पर ईश्वर का पूर्णावतार मानते हैं , इस प्रेम के सिद्धांत का पूर्ण विकास किस प्रकार किया हैं और हमें क्या उपदेश दिया हैं ।
उन्होेंने कहा हैं कि मनुष्य को इस संसार में पद्मपत्र की तरह रहना चाहिए । पद्मपत्र जैसे पानी में रहकर भी उससे नहीं भीगता, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में रहना चाहिए -- उसका हृदय ईश्वर में लगा रहे और हाथ कर्म में लगें रहें ।
इहलोक या परलोक में पुरस्कार की प्रत्याशा से ईश्वर से प्रेम करना बुरी बात नहीं, पर केवल प्रेम के लिए ही ईश्वर से प्रेम करना सब से अच्छा हैं , और उसके निकट यही प्रार्थन करनी उचित हैं , ' हे भगवन्, मुझे न तो सम्पत्ति चाहीए, न सन्तति , न विद्या । यदि तो सहस्रों बार जन्म-मृत्यु के तक्र में पडूँगा; पर हे प्रभो , केवल इतना ही दे क् मैं फल की आशा छाड़कर तेरी भक्ति करूँ, केवल प्रेम के लिए ही तुझ पर मेरा निःस्वार्थ प्रेम हो ।' -- शिक्षाष्टक ॥४॥ श्रीकृष्ण के एक शिष्य युधिष्टर इस समय सम्राट् थे । उनके शत्रुओं ने उन्हें राजस्ंहासन से च्युत कर दीया और उन्हें अपनी सम्राज्ञी के साथ हिमालय के जंगलों में आश्रय लेना पड़ा था । वहाँ एक दिन सम्राज्ञी ने उनसे प्रश्न किया , "मनुष्यों में सर्वोपरि पुण्यवान होते पुए भी आपको इतना दुःख क्यों सहना पड़ता हैं ?" युधिष्टर ने उत्तर दिया, "महारानी, देखो, यह हिमालय कैसा भव्य और सुन्दर हैं। मैं इससे प्रेम करताहूँ। यह मुझे कुछ नहीं देता ; पर मेरा स्वभाव ही ऐसा हैं कि मैं भव्य और सुन्दर वस्तु से प्रेम करता हूँ और इसी कारण मैं उससे प्रेम करता हूँ। उसी प्रकार मैं ईश्वर से प्रेम करता हूँ। उस अखिल सौन्दर्य , समस्त सुषमा का मूल हैं । वही एक ऐसा पात्र हैं, जिससे प्रेम करना चाहिए । उससे प्रेम करना मेरा स्वभाव हैं और इसीलिए मैं उससे प्रेम करता हूँ । मैं किसी बात के लिए उससे प्रार्थना नहीं करता, मैं उससे कोई वस्तु नहीं माँगता । उसकी जहाँ इच्छा हो, मुझे रखें । मैं तो सब अवस्थाओं में केवल प्रेम ही उस पर प्रेम करना चाहता हूँ, मैं प्रेम में सौदा नहीं कर सकता ।" --महाभारत, वनपर्व ॥३१.२.५॥
वेद कहते हैं कि आत्मा दिव्यस्वरूप हैं, वह केवल पंचभूतों के बन्धन में बँध गयी हैं और उन बन्धनों के टूटने पर वह अपने पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगीं । इस अवस्था का नाम मुक्ति हैं, जिसका अर्थ हैं स्वाधीनता -- अपूर्णता के बन्धन से छुटकारा , जन्म-मृत्यु से छुटकारा ।
और यह बन्धन केवल ईश्वर की दया से ही टूट सकता हैं और वह दया पवित्र लोगों को ही प्राप्त होती हैं । अतएव पवित्रता ही उसके अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय हैं। उसकी दया किस प्रकार काम करती हैं? वह पवित्र हृदय में अपने को प्रकाशित करता हैं । पवित्र और निर्मल मनुष्य इसी जीवल में ईश्वर दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता हैं । 'तब उसकी समस्त कुटिलता नष्ट हो जाती हैं, सारे सन्देह दूर हो जाते हैं ।' --मुण्डकोपनिषद् ॥२.२.८॥ तब वह कार्य-कारण के भयावह नियम के हाथ खिलौना नहीं रह जाता । यही हिन्दू धर्म का मूलभूत सिद्धांत हैं -- यही उसका अत्सन्त मार्मिक भाव हैं । हिन्दू शब्दों और सिद्धांतों के जाल में जीना नहीं चाहता । यदि इन साधारण इन्द्रिय-संवेद्य विषयों के परे और भी कोई सत्ताएँ हैं, तो वह उनका प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहता हैं । यदि उसमें कोई आत्मा हैं , जो जड़ वस्तु नहीं हैं, यदि कोई दयामय सर्वव्यापी विश्वात्मा हैं , तो वह उसका साक्षात्कार करेगा । वह उसे अवश्य देखेगा और मात्र उसी से समस्त शंकाएँ दूर होंगी । अतः हिन्दू ऋषि आत्मा के विषय में, ईश्वर के विषय में यही सर्वोत्तम प्रमाण देता हैं : ' मैंने आत्मा का दर्शन किया हैं; मैंने ईश्वर का दर्शन किया हैं ।' और यही पूर्णत्व की एकमात्र शर्त हैं । हिन्दू धर्म भिन्न भिन्न मत-मतान्तरों या सिद्धांतों पर विश्वास करने के लिए संघर्ष और प्रयत्न में निहित नहीं हैं, वरन् वह साक्षात्कार हैं, वह केवल विश्वास कर लेना नहीं है, वह होना और बनना हैं ।
इस प्रकार हिन्दूओं की सारी साधनाप्रणाली का लक्ष्य हैं -- सतत अध्यवसाय द्वारा पू्र्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना और उसके दर्शन कर लेना , उस स्वर्गस्थ पिता के समान पूर्ण जाना -- हिन्दूओं का धर्म हैं ।
और जब मनुष्य पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता हैं, तब क्या होता हैं ? तव वह असीम परमानन्द का जीवन व्यतीत करता हैं। जिस प्रकार एकमात्र वस्तु में मनुष्य को सुख पाना ताहिए, उसे अर्थात् ईश्वर को पाकर वह परम तथा असीम आनन्द का उपभोग करता हैं और ईश्वर के साथ भी परमानन्द का आस्वादन करता हैं ।
यहाँ तक सभी हिन्दू एकमत हैं । भारत के विविध सम्प्रदायों का यह सामान्य धर्म हैं । परन्तु पूर्ण निररेक्ष होता हैं, और निरपेक्ष दो या तीन नहीं हो सकता । उसमें कोई गुण नहीं हो सकता, वह व्यक्ति नहीं हो सकता । अतः जब आत्मा पूर्ण और निरपेक्ष हो जाती हैं, और वह ईश्वर के केवल अपने स्वरूप की पूर्णता, सत्यता और सत्ता के रूप में -- परम् सत्, परम् चित्, परम् आनन्द के रूप में प्रत्यक्ष करती हैं । इसी साक्षात्कार के विषय में हम बारम्बार पढ़ा करते हैं कि उसमें मनुष्य अपने व्यक्तित्व को खोकर जड़ता प्राप्त करता हैं या पत्थर के समान बन जाता हैं ।
'जिन्हें चोट कभी नहीं लगी हैं, वे ही चोट के दाग की ओर हँसी की दृष्टि से देखते हैं ।' मैं आपको बताता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं होती । यदि इस एक क्षुद्र शरीर की चेतना से इतना आनन्द होता हैं, तो दो शरीरों की चेतना का आनन्द अधिक होना ताहिए ,और उसी प्रकार क्रमशः अनेक शरीरों की चेतना के साथ आनन्द की मात्रा भी अधिकाधिक बढ़नी चाहिए, और विश्वचेतना का बोध होने पर आनन्द की परम अवस्था प्राप्त हो जाएगी ।
अतः उस असीम विश्वव्यक्तित्व की प्राप्ति के लिए इस कारास्वरूप दुःखमय क्षुद्र व्यक्तित्व का अन्त होना ही चाहिए । जब मैं प्राण स्वरूप से एक हो जाऊँगा , तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता हैं; जब मैं आनन्दस्वरूप हो जाऊँगा, तभी दुःख का अन्त हो सकता हैं; जब मैं ज्ञानस्वरूप हो जाऊँगा, तभी सब अज्ञान का अन्त हो सकता हैं, और यह अनिवार्य वैज्ञानिक निष्कर्ष भी हैं । विज्ञान ने मेरे निकट यह सिद्ध कर दिया हैं कि हमारा यह भौतिक व्यक्तित्व भ्रम मात्र हैं, वास्तव मेंमेरा यह शरीर एक अविच्छन्न जड़सागर में एक क्षुद्र सदा परिवर्तित होता रहने वाला पिण्ड हैं , और मेरे दूसरे पक्ष -- आत्मा -- के सम्बन्ध में अद्वैत ही अनिवार्य निष्कर्ष हैं ।
विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं हैं । ज्यों हि कोई विज्ञान पूर्ण एकता तक पहुँच जाएगी, त्यों ही उसकी प्रगति रूक जाएगी; क्योंकि तब वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा । उदाहरणार्थ, रसायनशास्त्र यदि एक बार उस मूलतत्तव का पता लगा ले, जिससे और सब द्रव्य बन सकते हैं, तो फिर वह आगे नहीं बढ़ सकेगा । भौतिक शास्त्र जब उस मूल शक्ति का पता लगा लेगा, अन्य शक्तियाँ जिसकी अभिव्यक्ति हैं , तब वह रुक जाएगा । वैसे ही, धर्मशास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त कर लेगा, जब वह उसको खोज लेगा, जो इस मृत्यु के उस लोक में अकमात्र जीवन हैं, जो इस परिवर्तनशील जगत् का शाश्वत आधार हैं, जो एकमात्र परमात्मा हैं, अन्य सब आत्माँ जिसकी प्रतीयमान अभिव्यक्तियाँ हैं । इस प्रकार अनेकता और द्वैत में से होते हिए इस परम अद्वैत की प्राप्ति होती हैं । धर्म इससे आगे नहीं जा सकता । यही समस्त विज्ञानों का चरम लक्ष्य हैं ।
समग्र विज्ञान अन्ततः इसी निष्कर्ष पर अनिवार्यतः पहुँचेंगे । आज विज्ञान का शब्द अभिव्यक्ति हैं, सृष्टि नहीं; और हिन्दू को यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हैं कि जिसको वह अपने अन्तस्तल में इतने युगों से महत्त्व देता रहा हैं, अब उसी की शिक्षा अधिक सशक्त भाषा में विज्ञान के नूतनतम निष्कर्षों के अतिरिक्त प्रकाश में दी जा रही हैं ।
अब हम दर्शन की अभीप्साओं से उतरकर ज्ञानरहित लोगों के धर्म की ओर आते हैं । यह मैं प्रारम्भ में ही आप को बता देना चाहता हूँ कि भारतवर्ष में अनेकेश्वरवाद नहीं हैं । प्रत्येक मन्दिर में यदि कोई खड़ा होकर सुने , तो यही पाएगा कि भक्तगण सर्वव्यापित्व आदि ईश्वर के सभी गुणों का आरोप उन मूर्तियों में करते हैं । यह अनेकेश्वरवाद नहीं हैं, और न एकदेववाद से ही इस स्थिति की व्याख्या हो सकती हैं । ' गुलाब को चाहे दूसरा कोई भी नाम क्यों न दे दिया जाए, पर वह सुगन्धि तो वैसी ही मधुर देता रहेगा ।' नाम ही व्याख्या नहीं होती ।
बचपन की एक बात मुझे यहाँ याद आती हैं । एक ईसाई पादरी कुछ मनुष्यों की भीड़ जमा करके धर्मोंपदेश कर रहा था । वहुतेरी मजेदार बातों के साथ वह पादरी यह भी कह गया , "अगर मैं तुम्हारी देवमूर्ति को एक डंडा लगाऊँ, तो वह मेरा क्या कर सकती हैं ?" एक श्रोता ने चट चुभता सा जवाब दे डाला, "अगर मैं तुम्हारे ईश्वर को गाली दे दूँ, तो वह मेरा क्या कर सकता हैं ?" पादरी बोला, "मरने के बाद वह तुम्हें सजा देगा ।" हिन्दू भी तनकर बोल उठा, " तुम मरोगे, तब ठीक उसी तरह हमारी देवमूर्ति भी तुम्हें दण्ड देगी ।"
वृक्ष अपने फलों से जाना जाता हैं । जब मूर्तिपूजक कहे जानेवाले लोगों में ऐसे मनुष्यों को पाता हूँ, जिनकी नैतिकता, आध्यात्मिकता और प्रेम अपना सानी नहीं रखते, तब मैं रुक जाता हूँ और अपने से यही पूछता हूँ -- 'क्या पाप से भी पवित्रता की उत्पत्ति हो सकती हैं ?'
अन्धविश्वास मनुष्य का महान् शत्रु हैं, पर धर्मान्धता तो उससे भी बढ़कर हैं । ईसाई गिरजाघर क्यों जाता हैं ? क्रूस क्यों पवित्र हैं? प्रार्थना के समय आकाश की ओर मुँह क्यों किया जाता हैं ? कैथोलिक ईसाइयों के गिरजाघरों में इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं ? प्रोटेस्टेन्ट ईसाइयों के मन में प्रार्थना के समय इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं ? मेरे भाइयो ! मन में किसी मूर्ति के आए कुछ सोच सकना उतना ही असम्भव हैं, जितना श्वास लिये बिना जीवित रहना । साहचर्य के नियमानुसार भौतिक मूर्ति से मानसिक भावविशेष का उद्दीपन हो जाता हैं , अथवा मन में भावविश्ष का उद्दीपन होमे से तदनुरुप मूर्तिविशेष का भी आविर्भाव होता हैं । इसीलिए तो हिन्दू आराधना के समय बाह्य प्रतीक का उपयोग करता हैं । वह आपको बतलाएगा कि यह बाह्य प्रतीक उसके मन को ध्यान के विषय परमेश्वर में एकाग्रता से स्थिर रखने में सहायता देता हैं । वह भी यह बात उतनी ही अच्छी तरह से जानता हैं, जितना आप जानते हैं कि वह मूर्ति न तो ईश्वर ही हैं और न सर्वव्यापी ही । और सच पूछिए तो दुनिया के लोग 'सर्वव्यापीत्व' का क्या अर्थ समझते हैं ? वह तो केवल एक शव्द या प्रतीक मात्र हैं । क्या परमेश्वर का भी कोई क्षेत्रफल हैं ? यदि नहीं, तो जिस समय हम सर्वव्यापी शब्द का उच्चारण करते हैं , उस समय विस्तृत आकाश या देश की ही कल्पना करने के सिवा हम और क्या करते हैं ?
अपनी मानसिक सरंचना के नियमानुसार, हमें किसी प्रकार अपनी अनन्तता की भावना को नील आकाश या अपार समुद्र की कल्पना से सम्बद्ध करना पड़ता हैं; उसी तरह हम पवित्रता के भाव को अपने स्वभावनुसार गिरजाघर या मसजिद या क्रूस से जोड़ लेते हैं । हिन्दू लोग पवित्रता, नित्यत्व, सर्वव्यापित्व आदि आदि भावों का सम्बन्ध विभिन्न मूर्तियों और रूपों से जोड़ते हैं ? अन्तर यह हैं कि जहाँ अन्य लोग अपना सारा जीवन किसी गिरजाघर की मूर्ति की भक्ति में ही बिता देते हैं और उससे आगे नहीं बढ़ते , क्योकि उनके लिए तो धर्म का अर्थ यही हैं कि कुछ विशिष्ट सिद्धान्तों को वे अपनी बुद्धि द्वारा स्वीक-त कर लें और अपने मानववन्धुओं की भलाई करते रहें -- वहाँ एक हिन्दू की सारी धर्मभावना प्रत्यक्ष अनुभूति या आत्मसाक्षात्कार में केन्द्रीभूत होती हैं । मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके दिव्य बनना हैं । मूर्तियाँ, मन्दिर , गिरजाघर या ग्रन्थ तो धर्नजीवन में केवल आघार या सहायकमात्र हैं; पर उसे उत्तरोतर उन्नति ही करनी चाहिए ।
मनुष्य को कहीं पर रुकना नहीं चाहिए । शास्त्र का वाक्य हैं कि 'बाह्य पूजा या मूर्तिपूजा सबसे नीचे की अवस्था हैं; आगे बड़ने का प्रयास करते समय मानसिक प्रार्थना साधना की दूसरी अवस्था हैं, और सबसे उच्च अवस्था तो वह हैं, जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाए ।' -- महानिर्वाणतन्त्र ॥४.१२ ॥ देखिए, वही अनुरागी साधक, जो पहले मूर्ति के सामने प्रणत रहता था, अब क्या कह रहा हैं -- 'सूर्य उस परमात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता, न चन्द्रमा या तारागण ही; वब विद्युत प्रभा भी परमेश्वर को उद्भासित नहीं कर सकती, तब इस सामान्य अग्िन की बात ही क्या ! ये सभी इसी परमेश्वर के कारण प्रकाशित होते हैं ।' -- कठोपनिषद् ॥२.२.१५॥ पर वह किसी की मूर्ति को गाली नहीं देता और न उसकी पूजा को पाप ही बताता हैं । वह तो उसे जीवन की एक आवश्यक अवस्था जानकर उसको स्वीकार करता हैं । 'बालक ही मनुष्य का जनक हैं ।' तो क्या किसी वृद्ध पुरुष का वचपन या युवावस्था को पाप या बुरा कहना उचित होगा ?
यदि कोई मनुष्य अपने दिव्य स्वरूप को मूर्ति की सहाहता से अनुभव कर सकता हैं , तो क्या उसे पाप कहना ठीक होगा ? और जब वह अवस्था से परे पहुँच गया हैं , तब भी उसके लिए मूर्ति पूजा को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं हैं । हिन्दू की दृष्टि में मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जा रहा हैं, वह तो सत्य से सत्य की ओर, निम्न श्रेणी के सत्य से उच्च श्रेणी के सत्य की ओर अग्रसर हो रहा हैं । हिन्दू के मतानुसार निम्न जड़-पूजावाद से लेकर सर्वोच्च अद्वैतवाद तक जितने धर्म हैं, वे सभी अपने जन्म तथा साहर्चय की अवस्था द्वारा निर्धारित होकर उस असीम के ज्ञान तथा उपलब्धि के निमित्त मानवत्मा के विविध प्रयत्न हैं ,और यह प्रत्येक उन्नति की एक अवस्था को सूचित करता हैं । प्रत्येक जीव उस युवा गरुड़ पक्षी के समान हैं , जो धीरे धीरे उँचा उ़ड़ता हुआ तथा अधिकाधिक शक्तिसंपादन करता हुआ अन्त नें उस भास्वर सूर्य तक पहुँच जाता हैं ।
अनेकता में एकता प्रकृति का विधान हैं और हिन्दुओं ने इसे स्वीकार किया हैं । अन्य प्रत्येक धर्म में कुछ निर्दिष्ट मतवाद विधिबद्ध कर दिये गये हैं और सारे समाज को उन्हें मानना अनिवार्य कर दिया जाता हैं । वह समाज के समाने केवल एक कोट रख देता हैं, जो जैक, जाँन और हेनरी, सभी को ठीक होना चाहिए । यदि जाँन या हेनरी के शरीर में ठीक नहीं आता, तो उसे अपना तन ढँकने के लिए बिना कोट के ही रहना होगा । हिन्दुओं मे यह जान लिया हैं कि निरपेक्ष ब्रह्मतत्त्व का साक्षात्कार , चिन्तन या वर्णन सापेक्ष के सहारे ही हो सकता हैं , और मूर्तियाँ, क्रूस या नवोदित चन्द्र केवल विभिन्न प्रतीक हैं, वे मानो बहुत सी खूँटियाँ हैं , जिनमें धार्मिक भावनाएँ लटकायी जाती हैं । ऐसा नहीं हैं कि इन प्रतीकों की आवश्यकता हर एक के लिए हो , किन्तु जिनको अपने लिए इन प्रतीकों की सहायता की आवश्यकता नहीं हैं, उन्हें यह कहने का अधिकार नहीं हैं कि वे गलत हैं । हिन्दू धर्म में वे अनिवार्य नहीं हैं ।
एक बात आपको अवश्य बतला दूँ । भारतवर्ष में मूर्ति पूजा कोई जधन्य बात नहीं हैं । वह व्यभिचार की जननी नहीं हैं । वरन् वह अविकसित मन के लिए उच्च आध्यात्मिक भाव को ग्रहण करने का उपाय हैं । अवश्य, हिन्दुओं के बहुतेरे दोष हैं , उनके कुछ अपने अपवाद हैं, पर यह ध्यान रखिए कि उनके दोष अपने शरीर को ही उत्पीड़ित करने तक सीमित हैं , वे कभी अपने पड़ोसियों का गला नहीं काटने जाते । एक हिन्दू धर्मान्ध भले ही चिता पर अपने आप के जला डाले , पर वह विधर्मियों को जलाने के लिए 'इन्क्विजिशन ' की अग्नि कभी भी प्रज्वलित नहीं करेगा । और इस बात के लिए उससे अधिक दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जितना डाइनों को जलाने का दोष ईसाई धर्म पर मढ़ा जा सकता हैं ।
अतः हिन्दुओं की दृष्टि में समस्त धर्मजगत् भिन्न भिन्न रुचिवाले स्त्री-पुरुषों की, विभिन्न अवस्थाओं एवं परिस्थियों में से होते हुए एक ही लक्ष्य की ओर यात्रा हैं, प्रगति हैं । प्रत्येक धर्म जड़भावापन्न मानव से एक ईश्वर का उद्भव कर रहा हैं, और वबी ईश्वर उन सब का प्रेरक हैं । तो फिर इतने परस्पर विरोध क्यों हैं ? हुन्दुओं का कहना हैं कि ये विरोध केवल आभासी हैं । उनकी उत्पत्ति सत्य के द्वारा भिन्न अवस्थाओं और प्रकृतियों के अनुरुप अपना समायोजन करते समय होती हैं ।
वही एक ज्योति भिन्न भिन्न रंग के काँच में से भिन्न भिन्न रूप से प्रकट होती हैं । समायोजन के लिए इस प्रकार की अल्प विविधता आवश्यक हैं । परन्तु प्रत्येक के अन्तस्तल में उसी सत्य का राज हैं । ईश्वर ने अपने कृष्णावतार में हिन्दुओं को यह उपदश दिया हैं , 'प्रत्येक धर्म में मैं , मोती की माला में सूत्र की तरह पिरोया हुआ हूँ ।' -- गीता ॥७.७॥ 'जहाँ भी तुम्हें मानवसृष्टि को उन्नत बनानेवाली और पावन करनेवाली अतिशय पवित्रता और असाधारण शक्ति दिखाई दे, तो जान लो कि वह मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ हैं ।' --गीता ॥१०.४१॥ और इस शिक्षा का परिणाम क्या हुआ ? सारे संसार को मेरी चुनौती हैं कि वह समग्र संस्कृत दर्शनशास्त्र में मुझे एक ऐसी उक्ति दिखा दे, जिसमें यह बताया गया हो कि केवल हिन्ुओं का ही उद्धार होगा और दूसरों का नहीं । व्यास कहते हैं, 'हमारी जाति और सम्प्रदाय की सीमा के बाहर भी पूर्णत्व तक पहुँचे हुए मनुष्य हैं ।' --वेदान्तसूत्र ॥३.४.३६॥ एक बात और हैं । ईश्वर में ही अपने सभी भावों को केन्द्रित करनेवाला हिन्दू अज्ञेयवादी बौद्ध और निरीश्वरवादी जैन धर्म पर कैसे श्रद्धा रख सकता हैं ?
यद्यपि बौद्ध और जैन ईश्वर पर निर्भर नहीं रहते. तथापि उनके धर्म की पूरी शक्ति प्रत्येक धर्म के महान् केन्द्रिय सत्य -- मनुष्य में ईश्वरत्व -- के विकास की ओर उन्मुख हैं । उन्हौंने पिता को भले न देखा हो, पर पुत्र को अवश्य देखा हैं । और जिसने पुत्र को देख लिया , उसने पिता को भी देख लिया ।
भाइयों ! हिन्दुओं के धार्मिक विचारों की यहीं संक्षिप्त रूपरेखा हैं । हो सकता हैं कि हिन्दू अपनी सभी योजनाओं की कार्यान्वित करने में असफल रहा हो , पर यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म होना हैं, तो वह किसी देश या काल से सीमाबद्ध नहीं होगा, वह उस असीम ईश्वर के सदृश ही असीम होगा, जिसका वह उपदेश देगा; जिसका सूर्य श्रीकृष्ण और ईसा के अनुयायियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाश विकीर्ण करेगा , जो न तो ब्रह्माण होगा , न बौद्ध, न ईसाई और न इस्लाम , वरन् इन सब की समष्टि होगा, किन्तु फिर भी जिसमें विकास के लिए अनन्त अवकाश होगा; जो इतना उदार होगा कि पशुओं के स्तर से सिंचित उन्नत निम्नतम घृणित जंगली मनुष्य से लेकर अपने हृदय और मस्तिष्क के गुणों के कारण मानवता से इतना ऊपर उठ गये हैं कि उच्चतम मनुष्य तक को, जिसके प्रति सारा समाज श्रद्धामत हो जाता हैं और लोग जिसके मनुष्य होने में सन्देह करते हैं, अपनी बाहुओं से आलिंगन कर सके और उनमें सब को स्थान दे सके । धर्म ऐसा होगा, जिसकी नीति में उत्पीड़ित या असहिष्णुता का स्थान नहीं होगा ; वह प्रत्येक स्त्री और पुरुष में दिव्यता का स्वीकार करेगा और उसका सम्पूर्ण बल और सामर्श्य मानवता को अपनी सच्ची दिव्य प्रकृति का साक्षात्कार करने के किए सहायता देने में ही केन्द्रित होगा ।
आप ऐसा ही धर्म सामने रखिए , और सारे राष्ट्र आपके अनुयायी बन जाएँगे । सम्राट् अशोक की परिषद् बोद्ध परिषज् थी । अकबर की परिषद् अधिक उपयुक्त होती हुई भी , केवल बैठक की ही गोष्ठी थी । किन्तु पृथ्वी के कोने कोने में यह घोषणा करने का गौरव अमेरिका के लिए ही सुरक्षित था कि 'प्रत्येक धर्म में ईश्वर हैं ।'
वह, जो हिन्दुओं का बह्म, पारसियों का अहुर्मज्द, बौद्धो का बुद्ध, यहूदियों का जिहोवा और ईसाइयों का स्वर्गस्थ पिता हैं , आपको अपने उदार उद्देश्य को कार्यन्वित करने की शक्ति प्रदान करे ! नक्षत्र पूर्व गगन में उदित हुआ और कभी धुँधला और कभी देदीप्यमान होते हुए धीरे धीरे पश्चिम की ओर यात्रा करते करते उसने समस्त जगत् की परिक्रमा कर डाली और अब फिर प्राची के क्षितिज में सहस्र गुनी अधिक ज्योति के साथ उदित हो रहा हैं !
ऐ स्वाधीनता की मातृभूमि कोलम्बिया , तू धन्य हैं ! यह तेरा सौभाग्य हैं कि तूने अपने पड़ोसियों के रक्त से अपने हाथ कभी नहीं हिगोये , तूने अपने पड़ोसियों का सर्वस्व हर्ण कर सहज में ही धनी और सम्पन्न होमे की चेष्टा नहीं की, अतएव समन्वय की ध्वजा फहराते हुए सभ्यता की अग्रणी होकर चलने का सौभाग्य तेरा ही था ।
धर्म भारत की प्रधान आवश्यकता नहीं
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2005-05-01T04:50:36Z
संजय
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ईसाइयों को सत् आलोचना सुनने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए, और मुझे विश्वास हैं कि यदि मैं आप लोगों की कुछ आलोचना करूँ, तो आप बुरा न मानेंगे । आप ईसाई लोग जो मूर्तिपूजकों की आत्मा का उद्धार करने की निमित्त अपने धर्मप्रचारकों को भेजने के लिए इतने उत्सुक रहते हैं, उनके शरीरों को भूख से मर जाने से बचाने के लिए कुछ क्यों नहीं करते ? भारतवर्ष में जब भयानक अकाल पड़ा था, तो सहस्रों और लाखों हिन्दू क्षुधा से पीडित होकर मर गये; पर आप ईसाइयों ने उनके लिए कुछ नहीं किया । आप लोग सारे हिन्दुस्तान में गिरजे बनाते हैं; पर पूर्व का प्रधान अभाव धर्म नहीं हैं, उसके पास धर्म पर्याप्त हैं -- जलते हुए हिन्दुस्तान के लाखों दुःखार्त भूखे लोग सूखे गले से रोटी के लिए चिल्ला रहे हैं । वे हम से रोटी माँगते हैं, और हम उन्हे देते हैं पत्थर ! क्षुधातुरों को धर्म का उपदेश देना उनका अपमान करना हैं , भूखों को दर्शन सिखाना उनका अपमान करना हैं । भारतवर्ष में यदि कोई पुरोहित द्रव्यप्राप्ति के लिए धर्म का उपदेश करे, तो वह जाति से च्युत कर दिया जाएगा और लोग उस पर थूकेंगे । मैं यहाँ पर अपने दरिद्र भाईयों के निमित्त सहायता माँगने आया था, पर मैं यह पूरी तरह से समझ गया हूँ कि मूर्तिपूजकों के लिए ईसाई-धर्मालम्बियों से, और विशेषकर उन्ही के देश में, सहायता प्राप्त करना कितना कठिन हैं ।
बौद्ध धर्म
927
1873
2005-05-01T04:51:55Z
संजय
8
मैं बौद्ध धर्मावलम्बी नहीं हूँ, जैसा कि आप लोगों ने सुना हैं, पर फिर भी मैं बौद्ध हूँ । यदि दीन, जापान अथवा सीलोन उस महान् तथागत के उपदेशों का अनुसरण करते हैं, तो भारत वर्ष उन्हें पृथ्वी पर ईश्वर का अवतार मानकर उनकी पूजा करता हैं । आपने अभी अभी सुना कि मैं बौद्ध धर्म की आलोचना करनेवाला हूँ , परन्तु उससे आपको केवल इतना ही समझना चाहिए । जिनको मैं इस पृथ्वी पर ईश्वर का अवतार मानता हूँ, उनकी आलोचना ! मुझसे यह सम्भव नहीं । परन्तु वुद्ध के विषय में हमारी धारणा यह हैं कि उनके शिष्यों ने उनकी शिक्षाओं को ठीक ठीक नहीं समझा । हिन्दू धर्म (हिन्दू धर्म से मेरा तात्पर्य वैदिक धर्म हैं ) और जो आजकल बौद्ध धर्म कहलाता हैं, उनमें आपस में वैसा ही सम्बन्ध हैं , जैसा यहूदी तथा ईसाई धर्मों में । ईसा मसीह यहूदी थे और शाक्य मुनि हिन्दू । यहूदियों ने ईसा को केवल अस्वीकार ही नहीं किया, उन्हें सूली पर भी चढ़ा दिया, हिन्दूओं नें शाक्य मुनि को ईश्वर के रूप में ग्रहण किया हैं और उनकी पूजा करते हैं । किन्तु प्रचलित हौद्ध धर्म नें तथा बुद्धदेव की शिक्षाओं में जो वास्तविक भेद हम हिन्दू लोग दिखलाना चाहते हैं, वह विशेषतःयह हैं कि शाक्य मुनि कोई नयी शिक्षा देने के लिए अवतीर्ण नहीं हुए थे । वे भी ईसा के समान धर्म की सम्पूर्ति के लिए आये थे , उसका विनाश करने नहीं । अन्तर इतना हैं कि जहाँ ईसा को प्राचीन यहूदी नहीं समझ पाये । जिस प्रकार यहूदी प्राचीन व्यवस्थान की निष्पत्ति नहीं समझ सके, उसी प्रकार बऔद्ध भी हिन्दू धर्म के सत्यों की निष्पत्ति को नहीं समझ पाये । मैं यह वात फिर से दुहराना चाहता हूँ कि शाक्य मुनि ध्वंस करने नहीं आये थे, वरन् वे हिन्दू धर्म की निष्पत्ति थे, उसकी तार्किक परिणति और उसके युक्तिसंगत विकास थे ।
हिन्दी धर्म के दो भाग हैं -- कर्मकाणड और ज्ञानकाणड । ज्ञानकाण्ढ का विशेष अध्ययन संन्यासी लोग करते हैं ।
ज्ञानकाण्ड में जाति भेद नहीं हैं । भारतवर्ष में उच्च अथवा नीच जाति के लोग संन्यासी हो सकते हैं, और तब दोनों जातियाँ समान हो जाती हैं । धर्म में जाति भेद नहीं हैं ; जाति तो एक सामाजिक संस्था मात्र हैं । शाक्य मुनि स्वमं संन्यासी थे , और यह उनकी ही गरिमा हैं कि उनका हृदय इतना विशाल था कि उन्होंने अप्राप्य वेदों से सत्यों को निकाल कर उनको समस्त संसार में विकीर्ण कर दिया । इस जगत् में सब से पहते वे ही ऐसे हुए, जिन्होंमे धर्मप्रचार की प्रथा चलायी -- इतना ही नहीं , वरन् मनुष्य को दूसरे धर्म से अपने धर्म में दीक्षीत करने का विचार भी सब से पहले उन्हीं के मन में उदित हुआ ।
सर्वभूतों के प्रति , और विशेषकर अज्ञानी तथा दीन जनों के प्रति अद्भुत सहानुभूति मेंं ही तथागत ता महान् गौरव सन्निहित हैं । उनके कुछ श्ष्य ब्राह्मण थे । बुद्ध के धर्मोपदेश के समय संस्कृत भारत की जनभाषा नहीं रह गयी थी । वह उस समय केवल पण्डितों के ग्रन्थों की ही भाषा थी । बुद्धदेव के कुछ ब्राह्मण शिष्यों मे उनके उपदेशों का अनुवाद संस्कृत भाषा में करना चाहा था , पर बुद्धदेव उनसे सदा यही कहते -- ' में दरिद्र और साधारण जनों के लिए आया हूँ , अतः जनभाषा में ही मुझे बोलने दो। ' और इसी कारण उनके अधिकांश उपदेश अब तक भारत की तत्कालीन लोकभाषा में पायें जाते हैं ।
दर्शनशास्त्र का स्थान चाहे जो भी दो, तत्त्वज्ञान का स्थान चाहे जो भी हो, पर जब तक इस लोक में मृत्यु मान की वस्तु हैं, जब तक मानवहृदय में दुर्वलता जैसी वस्तु हैं , जव तक मनुष्य के अन्तःकरण से उसका दुर्बलताजनित करूण क्रन्दन बाहर निकलता हैं, तव तक इस सेसार में ईश्वर में विश्वास कायम रहेगा ।
जहाँ तक दर्शन की बात हैं , तथागत के शिष्यों ने वेदों की सनातन चट्टानों पर बहुत हाथ-पैर पटके , पर वे उसे तोड न सके और दूसरी ओर उन्होंने जनता के बीच से उस सनातन परमेश्वर को उठा लिया, जिसमे हर नर-नारी इतने अनुराग से आश्रय लेता हैं । फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म को भारतवर्ष में स्वाभाविक मृत्यु प्राप्त करनी पड़ी और आज इस धर्म की जन्मभूमि भारत में अपने को बौद्ध कहनेवाली एक भी स्त्री या पुरुष नहीं हैं ।
किन्तु इसके साथ ही ब्राह्मण धर्म ने भी कुछ खोया -- समाजसुधार का वह उत्साह, प्राणिमात्र के प्रति वब आश्चर्यजनक सहानुभूति और करूणा , तथा वह अद्भुत रसायन, जिसे हौद्ध धर्म ने जन जन को प्रदान किया था एवं जिसके फलस्वरूप भारतिय समाज इतना महान् हो गया कि तत्कालीन भारत के सम्बन्ध में लिखनेवाले एक यूनानी इतिहासकार को यह लिखना पड़ा कि एक भी ऐसा हिन्दू नहीं दिखाई देता , जो मिथ्याभाषण करता हो ; एक भी ऐसी हिन्दू नारी नहीं हैं , जो पतिव्रता न हो ।
हिन्दू धर्म बौद्ध धर्म के बिना नहीं रह सकता और न बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म के बीना ही । तब यह देख्ए कि हमारे पारस्परिक पार्थक्य ने यह स्पष्ट रूप से प्रकट कर दिया कि बौद्ध, ब्राह्मणों के दर्षन और मस्तिष्क के बिना नहीं ठहर सकते, और न ब्राह्मण बौद्धों के विशाल हृदय क बिना । बौद्ध और ब्राह्मण के बीच यह पार्थक्य भारतवर्ष के पतन का कारण हैं । यही कारण हैं कि आज भारत में तीस करोड़ भिखमंगे निवास करते हैं , और वह एक सहस्र वर्षों से विजेताओं का दास बना हुआ हैं । अतः आइए, हम ब्राह्मणों की इस अपूर्व मेधा के साथ तथागत के हृदय, महानुभावता और अद्भुत लोकहितकारी शक्ति को मिला दें ।
धन्यवाद भाषण
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2005-05-01T04:52:57Z
संजय
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अंतिम अधिवेशन में भाषण
विश्वधर्म महासभा एक मूर्तिमानतथ्य सिद्ध हो गयी हैं और दयामय प्रभु ने उन लोगों की सहायता की हैं, तथा उनके परम निःस्वार्थ श्रम को सफलता से विभूषित किया हैं, जिन्होंने इसका आयोजन किया।
उन महानुभावों को मेरा धन्यवाद हैं, जिनके विशाल हृदय तथा सत्य के प्रति अनुराग ने पहले इस अद्भुत स्वप्न को देखा और फिर उसे कार्यरुप में परिणत किया । उन उदार भावों को मेरा धन्यवाद, जिनसे यह सभामंच आप्लावित होता रहा हैं । इस प्रबुद्ध श्रोतृमण्डली को मेरा धन्यवाद जिसने मुझ पर अविकल कृपा रखी हैं और जिसने मत-मतान्तरों के मनोमालिन्य को हलका करने का प्रयत्न करने वाले हर विचार का सत्कार किया । इस समसुरता में कुछ बेसुरे स्वर भी बीच बीच में सुने गये हैं । उन्हे मेरा विशेष धन्यवाद, क्योंकि उन्होंने अपने स्वरवैचिञ्य से इस समरसता को और भी मधुर बना दिया हैं ।
चित्र:Wikipedia-Hindi.png
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संजय
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संजय
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Interlingue
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Hindustani / Jahán
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Gangleri
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please protect this page against moves and edits - please read [[commons:Template talk:DIRMARK]]
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Bhaarat ke punarutthaan ke utprerak aur upaasak
1784
3316
2006-11-09T08:42:27Z
137.138.173.150
भारत आर्थिक, सामाजिक, और तकनीकी प्रगति की राह पर बड़ी तेजी से बढ़ता चला जा रहा है। ऐसे समय में भारत को सभी तरह से खुशहाल देखने के इच्छुक लोगों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ गयी है। जन-जन को भारत के इस नवजागरण के प्रति सचेत करने और इसमें योगदान देने के लिये प्रेरित करने की जरूरत है। यह पुस्तिका इसी उद्देश्य से बनायी गयी है।
इसमें भारतोदय से सम्बन्धित सारी जानकारी व्यवस्थित तरीके से प्रदान करने की कोशिश की जायेगी।
<br/><br/><br/>
[[bhaaratoday ke upaasak links | भारतोदय से उपासक : कौन कहाँ है?]]
Hasagulle
1785
3341
2006-12-07T15:54:13Z
137.138.173.150
*[[hasgulae_100_125 | हसगुले 100 से 125 तक]]
*[[hasgulae_126_150 | हसगुले 126 से 150 तक]]
*[[hasgulae_151_175 | हसगुले 151 से 175 तक]]
Hasgulae 100 125
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2006-11-09T09:23:21Z
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चुटकुला #10 0
बस
मुंबई की एक बस में कुछ लोग सफर कर रहे थे, जब कंडक्टर टिकट देने को आया तो एक ने पैसे निकालते हुए कहा - मोहम्मद अली।
दूसरे ने कहा - सेंट जोजफ।
एक देवीजी बोलीं - महालक्ष्मी।
पिछली सीट पर एक ऐसे साहब बैठे हुए थे, जो मुंबई में नए-नए आए थे।
जब कंडक्टर उनके पास आया तो वे बोले - मेरा नाम हमीद अली है।
चुटकुला # 101
कटी पतंग
दो दोस्त बहुत अर्से बाद एक-दूसरे से मिले।
एक ने पूछा- सुनाओ आजकल कैसी कट रही है।
खाक कट रही है, बेकार हूं, सरला भी कटी पतंग की तरह इधर-उधर डोलती फिरती है। लेकिन तुम सुनाओ?
खूब मजे से कट रही है। दूसरे ने कहा- आजकल मैं कटी पतंगें लुटता-फिरता हूं।
चुटकुला #1 02
आत्महत्या
अमेरिकन, इटालियन और सरदार खाना खाने बैठे, अमेरिकन टिफिन में कर्ॉन्ड बीफ देख बोला-'कल से टिफिन में यही निकला तो आत्महत्या कर लूंगा। इटालियन टिफिन में, पास्ता देख वही बोला जो अमेरिकन बोला सरदारजी भी टिफिन में दाल देख आत्महत्या कर लूंगा बोले। दूसरे दिन टिफिन में वही चीजें देख तीनों ने आत्महत्या कर ली। अंत्येष्टि में अमेरिकन की पत्नी रोते हुए बोली- 'यदि मुझे पता होता तो मैं इनके टिफिन में कुछ और दे देती। इटालियन की पत्नी भी यही बोली, सरदारजी की पत्नी सकपकाकर बोली - 'सरदारजी तो अपना खाना खुद ही बनाते थे।
चुटकुला # 103
परेशान
आप परेशान क्यों हैं?
मैंने एक ऐसी दवा तैयार की थी, जिसे प्रयोग करने पर 50 वर्ष की महिला भी 25 वर्ष
की लगने लगती है।
तो इसमें परेशानी वाली क्या बात है? खूब बिकी होगी?
अरे, भला कौन महिला अपनी उम्र 50 वर्ष कबूल करेगी? सो, मेरी दवा नहीं बिकी।
चुटकुला # 104
सरदार
सरदारजी यूनिवसटी की परीक्षा देने गए। प्रश्नों के उत्तर केवल 'हां या 'नहीं में देने थे। पर्चा पढ़ने के बाद सरदारजी ने जेब से सिक्का निकाला और टॉस करने लगे। हेड आता तो सरदारजी 'हां में उत्तर देते नहीं तो 'नहीं में। उन्होंने पर्चा आधे घंटे में पूरा कर लिया और बैठ गए। काफी देर तक बैठने के बाद वे फिर से टॉस करने लगे। समय समाप्त होते ही परीक्षक ने कॉपी छिन ली। जब बाहर सरदारजी से पर्चे के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा- 'अरे मैंने पर्चा आधे घंटे में ही खत्म कर दिया था लेकिन जब मैं उत्तर चेक कर रहा था तो परीक्षक ने कॉपी ही छिन ली।
चुटकुला # 105
मामा
'अपने मामा को चपत लगाते हुए तुम्हें शर्म नहीं आई? मम्मीजी ने डांटा।
गुड्डूज बोले - 'मम्मी, मैंने तो चपत भर लगाई है। भगवान कृष्ण ने तो अपने मामा को जान से ही मार डाला था।
चुटकुला #1 06
भिखारी
एक भिखारी ने दरवाजे पर आवाज लगाई- दाता के नाम पर रोटी दे दो।
भीतर से आवाज आई - मम्मी घर में नहीं हैं।
इस पर भिखारी बोला - मैं रोटी मांग रहा हूं, तुम्हारी मम्मी नहीं।
चुटकुला # 107
ट्रेवलिंग सूट
प्रेमी- डाश्ललग, ये सूट जो मैंने पहना हुआ है, ट्रेवलिंग सूट है।
चुटकुला # 108
प्रेमिका- कैसे?
प्रेमी- पहले पहले मेरे दादा से पहना मेरे पापा ने। और अब इसे मैं पहन रहा हूँ।
चुटकुला # 109
शिकार
टन्नू ने जंगल में शेर पर बंदूक तानी थी कि शेर ने फुर्ती से झपट्टा मारकर बंदूक दूर गिरा दी। एक झापड़ मारा टन्नू को और कहा-
'बोर्ड नहीं पढ़ा, कि यहाँ शिकार करना मना है।
टन्नू ने बोर्ड पढ़कर सॉरी कहा, और जाने लगा।
मगर शेर ने कहा ठहरो-
'अब मैं तुम्हारा शिकार करूँगा।
टन्नू ने कहा- 'ऐसा कैसे? बोर्ड पर तो मनाही लिखी है।
शेर लापरवाही से- 'लिखी होगी, बाश्शाओ। अपन तो अनपढ़ हैं।
हा-हा-हा!
और वह टन्नू पर टूट पड़ा।
चुटकुला #11 0
दौड...
तुम घोडे के बराबर नहीं दौड सकते हो?
लेकिन घोडा दौड में मुझसे आगे नहीं जा सकता।
ऐसा हो ही नहीं सकता।
क्यों नहीं हो सकता, मैं घोडे पर बैठा जो रहूंगा।
चुटकुला # 111
पिकनिक
पापा बोले- 'बेटी, पिकनिक पर जरूर जाओ, पर अंधेरा होने से पहले घर जरूर लौट आना।
युवा बेटी ने कहा- 'ओह पापा! अब मैं कोई बच्ची थोडे ही हूं।
पापा बोले- 'बेटी, इसलिए तो कह रहा हूं।
चुटकुला # 112
शादी
जुगल ने अपनी प्रेमिका से कहा, 'मैं उस युवती से शादी करूंगा, जो मेहनती हो, सादगी से रहती हो, घर को संवारकर रखती हो, आज्ञाकारी हो।
प्रेमिका ने मुस्कुराते हुए बताया, 'मेरे घर आ जाना, ये सारे गुण मेरी नौकरानी में हैं।
चुटकुला #113
घडी
एक बार एक आदमी के घर में चोरी हो गई। वह थाने में रिपोर्ट लिखाने गया। तब दरोगा ने पूछा-
जब तुम्हारे यहां चोरी हुई थी तो कितना बजा था।
उस आदमी ने कहा कि साहब चार लट्ठ हम पर तथा एक लट्ठ हमारे भाई पर बजा था।
दरोगाजी ने कहा- मैं पूछता हूं कि घडी में कितना बजा था?
साहब घडी में तो केवल एक ही लट्ठ बजा था, तभी टूट गई थी।
चुटकुला # 114
टिकट
सुंदर युवती बनी-ठनी अपने पुरुष मित्र की बाट देख रही थी। जब वह आया तो उसका मुख दमक रहा था। वह बोला - आज हमारी रात्रि बड़ी मधुर बीतेगी। मैं खलनायक के तीन टिकट ले आया हूं।
निराश स्वर में युवती ने पूछा - तीन क्यों?
'तुम्हारे पिता, मां और भाई के लिए।
चुटकुला # 115
प्रेमी
क्लब में ताश का खेल हो रहा था। एक खिलाडी ने अपनी घडी देखी और पत्ते फेंक दिए।
क्या हुआ? दोस्तों ने पूछा।
मैं चला। आज ठीक आठ बजे पंडित रामलाल का टेलीविजन पर सितार वादन का प्रोग्राम है, मुझे ठीक आठ बजे पहुंचना है।
हमें नहीं मालूम था कि तुम संगीत के इतने बडे प्रेमी हो।
मैं संगीत का नहीं, पंडित रामलाल की पत्नी का प्रेमी हूं।
मुझे ठीक आठ बजे पंडित रामलाल के घर पहुंचना है।
चुटकुला # 116
सुहाग रात
एक बार एक लड़के की शादी होती है। जब वो सुहाग रात मनाने जाता है तो उसकी
बीबी इधर से उधर भागती है। सुबह तक बीबी उसके हाथ नहीं आती और वह कुछ
नहीं कर पाता। इसकी शिकायत करते हुए वह अपने पिता से कहता है कि पापा, मेरे
बेड के चारों ओर दीवार बनवा दो या फिर एक मोटी रस्सी ला दो जिससे कि मैं
अपनी दुल्हन को डबलबेड से बांध सकूं।
चुटकुला # 117
अंग्रेज
एक बार एक अंग्रेज हिन्दुस्तान में आया उसने एक दुकानदार से कहा कि मुझे आप
हिन्दी सिखाओ। मैं आपके यहां नौकरी करुंगा। उसने कहा मेरे पास एक सेब (एप्पल)
की दुकान है। यहां जो भी ग्राहक आता है वो तीन चीजें बोलता है पहली-'सेब क्या
भाव हैं? दूसरी- 'कुछ खराब हैं और तीसरी-'मुझे नहीं लेने। इसके बाद दुकानदार ने
अंग्रेज को बताया इनके जवाब में उसको बोलना है तीस रुपये किलो। फिर कहना है
कुछ-कुछ खराब हैं और जब ग्राहक चलने लगे तो उस कहना तुम नहीं ले जाओगे तो
कोई और ले जायेगा। थोडी देर बाद दुकान पर एक लड़की आई। उसने पूछा- रेलवे
स्टेशन कौनसा रास्ता जाता है? अंग्रेज ने कहा तीस रुपये किलो। लड़की ने कहा- तेरा
दिमाग खराब है। अंग्रेज ने कहा-कुछ-कुछ खराब है। लड़की ने कहा-तुझे थाने लेकर
जाना पड़ेगा। अंग्रेज ने कहा-तुम नहीं ले जाओगे तो कोई और ले जायेगा। हम तो खड़े
ही इस काम के लिए हैं।
चुटकुला #118
बच्चा
एक दुकानदार (एक ग्राहक महिला से)- बहन जी, आपका बच्चा तो बहुत तंदरुस्त है।
महिला- हां क्यों न हो, आखिर मैं इसे दूध और संतरे के रस पर पाल रही हूं।
दुकानदार(कुछ सोचते हुए)- बहनजी, संतरे का रस किस में है।
चुटकुला #119
जवानी
एक अधेड अभिनेत्री ने ठंडी सांस लेते हुए अपनी सहेली से कहा-
जब मुझे अपनी जवानी के दिन याद आते हैं तो मुझे अपने आप से नफरत होने लगती
है।
सहेली- क्यों ऐसा क्या हुआ था उन दिनों?
अभिनेत्री ने उदास होकर जवाब दिया- इसी बात का ही तो रोना है कि कुछ हुआ ही
नहीं।
चुटकुला # 120
शादी का फैसला
एक दोस्त दूसरे दोस्त से- तो फिर तुमने वाकई उस लड़की से शादी करने का फैसला
कर ही लिया।
दूसरा दोस्त(निराशा से)- हां यार, क्या करुं मजबूरी है।
पहला दोस्त(आश्चर्य से)- क्यों, मजबूरी किस बात की है?
दूसरा दोस्त- अरे यार, वह इतनी मोटी हो गई है कि मंगनी की अंगूठी अब उसके हाथ
से उतरती ही नहीं।
चुटकुला # 121
तो-तो की बीमारी
एक बार एक शहरी आदमी दरभंगा जाने के लिए दिल्ली से चलकर पटना पहुंचा और वहां उसने
एक व्यक्ति से पूछा- भाईसाहब, दरभंगा यही रास्ता जाता है? उस व्यक्ति ने जवाब दिया- तो?
फिर आगे मुजफ्फरपुर पहुंचकर उसने दूसरे व्यक्ति से यही प्रश्न किया। तो उसने भी वही जवाब
दिया- तो? दरभंगा पहुंचकर भी उसने यही प्रश्न तीसरे व्यक्ति से किया, तो वहां मिले व्यक्ति ने
जवाब दिया -भाई मेरे, यही दरभंगा है। इस पर शहरी आदमी ने राहत की सांस ली और उससे
पूछा- भाईसाहब, आप एक बात बताएंगे कि बिहार में सबको तो-तो की बीमारी है क्या?
तीसरा व्यक्ति- वो सब अनपढ़-गंवार होंगे।
शहरी- तो आप पढे-लिखे हैं।
तीसरा व्यक्ति- तो?
चुटकुला #122
वयस्क फिल्म
एक दिन उन्नीस सरदार वयस्क फिल्म देखने गए । टिकट लेकर वे सिनेमा हाल
में घुसने के लिए लाइन में लग गए। टिकट जांचने वाला गिनते हुए एक-एक
कर उन्हें प्रवेश देने लगा- 'एक.... दो.... तीन.... दस.... अठारह !
उन्नीसवें सरदारजी से उसने आश्चर्य से पूछा- 'क्यों सरदारजी, आज उन्नीस के
उन्नीस सरदारों को एकाएक पिक्चर देखने की क्या सूझी ?
सरदारजी ने बडे ही भोलेपन से जवाब दिया- ' ओ जी बात ये है कि आपने
ही तो पोस्टर पर लिखा हुआ है कि '18 से नीचे को प्रवेश नहीं मिलेगा!
इसलिए हम पूरे उन्नीस आए हैं।
चुटकुला # 123
ताश की गड्डी
एक जनरल स्टोर पर एक खरीददार ताश खरीदने के लिए गया।
उसने दुकानदार से पूछा- भाईसाहब, आपके पास ताश की गड्डी है क्या?
दुकानदार- हां है न, भैया।
खरीददार- ठीक है, एक गड्डी दे दो।
दुकानदार : क्यों, क्या खेलने लिए चाहिए?
खरीददार(खीझकर) : नहीं, दरअसल मैं घर बनवा रहा हूं और उसमें ईंट कम पड़ गई हैं
इसलिए ताश की गड्डी खरीद रहा हूं।
चुटकुला # 124
याददाश्त
दो मित्र आपस में बातें कर रहे थे।
पहला मित्र : यार, मैं अपनी पत्नी की वजह से बहुत परेशान हो गया हूं।
दूसरा मित्र : क्या हो गया? वो बहुत झगडती हैं क्या?
पहला मित्र : नहीं यार, उसकी याददाश्त बहुत खराब है।
दूसरा मित्र : क्यों? काम की बातें भूल जाती हैं क्या?
पहला मित्र : अरे नहीं, वो छोटी-छोटी बातें भी याद रखती है।
चुटकुला # 125
पियक्कड
एक पियक्कड का दावा था कि वो आंख बंद करके न केवल किसी पेय का ब्रांड
बल्कि उसके उत्पादक का नाम भी बता सकता है। उस पियक्कड की आंख पर पट्टी
बांधी गई और उसके सामने गिलास रखा गया।
पहला गिलास पीकर वह बोला : हैवर्ड की ओल्ड टवर्न।
दूसरा गिलास : मोहन मीकिन की डिप्लोमेट।
तीसरा गिलास : यूबी की किंग फिशर।
उसकी बातों से लोग बडे प्रभावित हुए। अब उसके सामने अंतिम गिलास रखा गया।
वह अंतिम गिलास पीकर बोला : अरे ये तो यूरिन है।
इस पर एक दर्शक बोला : वो तो हमें भी पता है। आप तो इसके उत्पादक का नाम
बताओ।
Higher Secondary Guide
1789
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2006-12-07T15:47:52Z
137.138.173.150
उच्च माध्यमिक कक्षाओं की शिक्षा विद्यार्थी जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव है। यहीं से जीवन के विविध मार्गों की शुरुवात होती है। जीवन के इस अमूल्य समय को दक्षता पूर्वक उपयोग करके भावी जीवन को सुखद और खुशहाल बनाया जा सकता है। <br/><br/>
*[[Mathematics | गणित]]
*[[Physics | भौतिक विज्ञान]]
*[[Chemistry | रसायन विज्ञान]]
*[[Biology | जीवविज्ञान]]
<Br/>
[[कैरीअर मार्गदर्शन | कैरीअर मार्गदर्शन तथा अन्य उपयोगी जाल-स्थल]]
Indian Culture in a Nutshell
1790
3333
2006-11-27T09:32:04Z
137.138.179.176
चार वेद - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद
तीन देव - ब्रह्मा, विष्णु, महेश(शंकर)
चार आश्रम - ब्रह्मचर्य, गृहस्त, वानप्रस्थ, सन्यास
छः शास्त्र - न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त
आदि कवि - महर्षि वाल्मिकि, जिन्होने संस्कृत में रामायण की रचना की।
Sandarbh:
[http://www.geocities.com/sushmajee/hindureligion/glossary/glossary-a-d.htm | Hindu Glossary]
Cemistry Facts
1791
3329
2006-11-26T02:54:52Z
137.138.179.176
New page: Chemistry Facts
MATTER
The atom is the basic unit of matter.
The atom is composed of a nucleus and electrons that circle the nucleus.
The nucleus contains protons and neutrons.
Proton...
Chemistry Facts
MATTER
The atom is the basic unit of matter.
The atom is composed of a nucleus and electrons that circle the nucleus.
The nucleus contains protons and neutrons.
Protons are positively charged, electrons are negatively charged and neutrons have no charge.
Identification of the Elements
The number of protons in the nucleus determines the atomic number.
The atomic mass is determined by the sum of the number of neutrons and the number of protons.
An atom is electrically neutral - the number of protons is equal to the number of electrons.
Atoms can be joined together by chemical bonds.
Pure substances composed of one type of atom are called elements. When two atoms of the same type combine chemically we get a molecule of an element.
Pure substances composed of two or more different types of atoms joined by chemical bonds form a molecule of a compound.
Mixtures
Mixtures are composed of two or more substances physically intermixed.
Solutions are homogeneous mixtures of two or more components.
The component present in the largest quantity is the solvent and the component present in the smallest quantity is the solute.
Colloids are heterogeneous mixtures that are cloudy due to the relatively large size of the dispersed particles. Colloid particles do not settle out of the mixture.
Suspensions are heterogeneous mixtures, which are cloudy due to the large size of the dispersed particles. Suspended particles do settle out of the mixture (suspensions have to be shaken before use).
Chemical Bonds
Bonds form when atoms are placed in close proximity and their electrons interact. Two electrons are required to form the bond.
Ionic bonds form when an electron from one atom is transferred to the second atom.
The atom losing the electron becomes positively charged and is called a cation.
The atom gaining the electron becomes negatively charged and is called an anion.
Ionically bonded substances dissociate in water forming ions - in our bodies we call them electrolytes.
Covalent bonds form when electrons are shared (but not transferred) between atoms.
The atoms may be shared equally to form non-polar substances or shared unequally to form polar substances.
Covalently bonded substances do not dissociate in water.
Hydrogen bonds are weak bonds that form between the positive part of one polar molecule and the negative part of another polar molecule.
Chemical Reactions
Equations show the type and number of substances chemically reacting (reactants) and the type and number of substances formed (products) by the reaction.
Reactions may involve the synthesis of a substance (anabolic) - these reactions usually require energy to form the bonds.
Reactions may involve the decomposition of a substance (catabolic) - these reactions usually release energy as the bonds are broken.
Most reactions are reversible (in theory).
Factors influencing the rate of reactions are temperature, particle size, concentration, and catalysts.
Catalysts are substances which increase the rate of a reaction (without themselves becoming involved chemically) by lowering the activation energy for the reaction.
Enzymes are biological catalysts.
Reactions Occurring in Living Matter
Decomposition reactions involving water are called hydrolysis reactions. Bonds are broken and water is added to each broken bond.
Synthesis reactions involving water are called dehydration syntheses - smaller subunits are joined and water is produced during the reaction.
Neutralization reactions occur when acids and bases are mixed.
Acids, Bases and Buffers
Acids donate hydrogen ions (H+) to the solution.
Bases accept H+ from the solution.
pH is a measure of the acidity of the solution and is a reflection of the H+ concentration. The higher the H+ concentration the more acidic the solution and the lower the pH.
The lower the H+ concentration the more alkaline (basic) the solution and the higher the pH.
Buffers are substances that resist large and abrupt changes in pH.
Organic Compounds
All organic compounds contain carbon.
They may be carbohydrates, lipids, proteins or nucleic acids.
Carbohydrates (sugars) contain carbon, hydrogen and oxygen. They are a major source of fuel in the body.
Lipids contain primarily carbon and hydrogen.
Lipids like triglycerides (fats), steroids and phospholipids are relatively insoluble in water. They are a major source of fuel in the body.
Proteins all contain carbon, oxygen, hydrogen and nitrogen. Some also contain sulfur.
Proteins are composed of amino acid subunits that polymerize into long chains called polypeptides. The bond formed between the amino acid subunits is called the peptide bond.
There are 20 different amino acids.
Proteins form the basic structural material in the body. They act as catalysts (enzymes), serve as receptors and allow for muscle contraction.
Nucleic acids contain carbon, hydrogen, oxygen, nitrogen and phosphorus.
They are composed of subunits called nucleotides.
Nucleotides consist of a nitrogen containing base, a pentose sugar and a phosphate group and are joined together by phosphoanhydride bonds.
Five nitrogenous bases are found in nucleic acids - adenine (A), guanine (G), cytosine (C), thymine (T) and (only in RNA) uracil (U).
The material found inside the nucleus - the genetic material - is deoxyribonucleic acid - DNA.
The material produced inside the nucleus and transported into the cytoplasm for the purposes of protein synthesis is ribonucleic acid - RNA. RNA occurs as mRNA, tRNA and rRNA.
DNA exists as a double helix whose strands are complementary to one another. RNA exists as a single strand.
Complementary base pairing means that A on one strand always bonds to T (or U if the strand being made is RNA) on the other, and G on one strand always bonds to C on the other.
ENERGY
Energy may be stored (potential) or in motion (kinetic).
Stored energy may be chemical or electrical.
Chemical energy stored in the body mainly takes the form of adenosine triphosphate - ATP.
Electrical energy may be stored in the body as membrane potential - the separation of charged particles across the plasma membrane.
Engineering Guide
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3342
2006-12-07T16:01:28Z
137.138.173.150
यहाँ इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों के लिये उपयोगी सामग्री और लिंक दिये जायेंगे।
<BR/>
[[मुक्त पाठ्य-सामग्री | अभियांत्रिकी की मुक्त पाठ्य-सामग्री (ओपेन कोर्सवेअर)]] <Br/>
[[इंजीनियरिंग लेख | भावी अभियन्ताओं के लिये इंजीनियरिंग लेख ]]
Chemistry
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3334
2006-12-02T09:51:21Z
137.138.173.150
New page: * [[Cemistry Facts]]
* [http://www.hdm-stuttgart.de/projekte/printing-inks/b_organ0.htm| Organic Chemistry in a Nutshell]
* [http://www.rsc.org/Education/EiC/issues/2005_Jan/skeletal.asp...
* [[Cemistry Facts]]
* [http://www.hdm-stuttgart.de/projekte/printing-inks/b_organ0.htm| Organic Chemistry in a Nutshell]
* [http://www.rsc.org/Education/EiC/issues/2005_Jan/skeletal.asp| Skeletaetal Chemistry]
W/w/index.php
1794
3350
2007-01-25T19:25:57Z
88.108.232.82
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हनुमान चालीसा
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3338
2006-12-04T15:58:27Z
Taxman
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हिन्दी विकिपीडिया से ट्रॉन्स्विकि
==हनुमान चालीसा के बोल==
श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि, </br>
बरनउ रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि ॥1॥
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार,</br>
बल बुधि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश विकार ॥2॥
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर,</br>
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥3॥
राम दूत अतुलित बल धामा,</br>
अंजनि पुत्र पवनसुत नामा ॥4॥
महाबीर बिक्रम बजरंगी,</br>
कुमति निवार सुमति के संगी ॥5॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा,</br>
कानन कुंडल कुँचित केसा ॥6॥
हाथ बज्र अरु ध्वजा बिराजे,</br>
काँधे मूँज जनेऊ साजे ॥7॥
शंकर सुवन केसरी नंदन,</br>
तेज प्रताप महा जगवंदन ॥8॥
विद्यावान गुनी अति चातुर,</br>
राम काज करिबे को आतुर ॥9॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया,</br>
राम लखन सीता मनबसिया ॥10॥
सूक्ष्म रूप धरि सियहि दिखावा,</br>
विकट रूप धरि लंक जरावा ॥11॥
भीम रूप धरि असुर सँहारे,</br>
रामचंद्र के काज सवाँरे ॥12॥
लाय सजीवन लखन जियाए,</br>
श्री रघुबीर हरषि उर लाए ॥13॥
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई,</br>
तुम मम प्रिय भरत-हि सम भाई ॥14॥
सहस बदन तुम्हरो जस गावै,</br>
अस कहि श्रीपति कंठ लगावै ॥15॥
सनकादिक ब्रम्हादि मुनीसा,</br>
नारद सारद सहित अहीसा ॥16॥
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते,</br>
कवि कोविद कहि सके कहाँ ते ॥17॥
तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा,</br>
राम मिलाय राज पद दीन्हा ॥18॥
तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना,</br>
लंकेश्वर भये सब जग जाना ॥19॥
जुग सहस्त्र जोजन पर भानू,</br>
लिल्यो ताहि मधुर फ़ल जानू ॥20॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही,</br>
जलधि लाँघि गए अचरज नाही ॥21॥
दुर्गम काज जगत के जेते,</br>
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥22॥
राम दुआरे तुम रखवारे,</br>
होत ना आज्ञा बिनु पैसारे ॥23॥
सब सुख लहैं तुम्हारी सरना,</br>
तुम रक्षक काहु को डरना ॥24॥
आपन तेज सम्हारो आपै,</br>
तीनों लोक हाँक तै कापै ॥25॥
भूत पिशाच निकट नहि आवै,</br>
महावीर जब नाम सुनावै ॥26॥
नासै रोग हरे सब पीरा,</br>
जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥27॥
संकट तै हनुमान छुडावै,</br>
मन क्रम वचन ध्यान जो लावै ॥28॥
सब पर राम तपस्वी राजा,</br>
तिनके काज सकल तुम साजा ॥29॥
और मनोरथ जो कोई लावै,</br>
सोहि अमित जीवन फल पावै ॥30॥
चारों जुग परताप तुम्हारा,</br>
है परसिद्ध जगत उजियारा ॥31॥
साधु संत के तुम रखवारे,</br>
असुर निकंदन राम दुलारे ॥32॥
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता,</br>
अस बर दीन जानकी माता ॥33॥
राम रसायन तुम्हरे पासा,</br>
सदा रहो रघुपति के दासा ॥34॥
तुम्हरे भजन राम को पावै,</br>
जनम जनम के दुख बिसरावै ॥35॥
अंतकाल रघुवरपुर जाई,</br>
जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई ॥36॥
और देवता चित्त ना धरई,</br>
हनुमत सेहि सर्व सुख करई ॥37॥
संकट कटै मिटै सब पीरा,</br>
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥38॥
जै जै जै हनुमान गुसाईँ,</br>
कृपा करहु गुरु देव की नाई ॥39॥
जो सत बार पाठ कर कोई,</br>
छूटहि बंदि महा सुख होई ॥40॥
जो यह पढे हनुमान चालीसा,</br>
होय सिद्ध साखी गौरिसा,
तुलसीदास सदा हरि चेरा,</br>
कीजै नाथ हृदय मह डेरा,
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप ॥</br>
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ॥
==बहारी कडियाँ==
# [http://vijaywadnere.blogspot.com/2006/02/blog-post.html ब्लॉग कुलबुलाहट पर हनुमान चालीसा]
कैरीअर मार्गदर्शन
1796
3340
2006-12-07T15:51:28Z
137.138.173.150
New page: * [http://www.careersalah.com/index.htm कैरीअर सलाह ] : हिन्दी माध्यम से उत्कृष्ट कैरीअर मार्गदर...
* [http://www.careersalah.com/index.htm कैरीअर सलाह ] : हिन्दी माध्यम से उत्कृष्ट कैरीअर मार्गदर्शन का जाल-स्थल
मुक्त पाठ्य-सामग्री
1797
3347
2006-12-23T18:06:45Z
137.138.173.149
ओपेन कोर्सवेयर (OCW) विश्वविद्यालय स्तर की शैक्षणिक सामग्री( Lectures, Handouts, Quizzes, Streaming Video etc) है जो अन्तर्जाल पर आनलाइन उपलब्ध कराई गयी है। सबसे पहले MIT ने इसे शुरू किया । बाद में कई अन्य संस्थान भी इस महान कार्य में हिसा ले रहे हैं। भारत में भी सितम्बर २००६ में इसी तरह का एक कार्यक्रम NPTEL आरम्भ किया गया है। <BR/><br/>
* [http://ocw.mit.edu/OcwWeb/index.htm MIT Open CourseWare] : अब जगत्प्रसिद्ध MIT सबको सर्वत्र उपलब्ध <Br/>
* [http://www.ocwconsortium.org/about/members.shtml Open Courseware Consortium ] <br/>
* [http://www.nptel.iitm.ac.in/indexHome.php Indian National Program on Technology Enhanced Learning] : a joint Venture of Seven IITs and IISc Banglore, India. <Br/>
* [http://opencontent.org/ocwfinder/ Open Courseware Finder] : Find open educational resources by typing in the search box or selecting tags from left to right <Br/>
* [http://iberry.widged.com/html/ocd.htm Open Courseware Directory at iBerry_Dot_Com ] <Br/>
इंजीनियरिंग लेख
1798
3348
2006-12-23T21:01:41Z
137.138.173.149
New page: * [http://www.youtube.com/watch?v=NorfgQlEJv8 Software and Community in the Early 21st Century] : Video Lecture, December 2006.
* [http://www.youtube.com/watch?v=NorfgQlEJv8 Software and Community in the Early 21st Century] : Video Lecture, December 2006.