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हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल)/भारतीय नवजागरण और हिन्दी नवजागरण की अवधारणा
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उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान संपूर्ण भारत में एक नयी बौद्धिक चेतना और सांस्कृतिक उथल-पुथल दृष्टिगोचर होती है। प्लासी के युद्ध (१७५७ ई॰) में विदेशी सत्ता के हाथों पराजय, उपनिवेशवाद तथा ज्ञान-विज्ञान के प्रसार के साथ-साथ पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से यह जागृति उत्पन्न हुई। इस जागृति के दौरान मानव को केन्द्र में लाया गया, विवेक की केन्द्रीयताा, ज्ञान-विज्ञान का प्रसार, रूढ़ियों का विरोध और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का नये सिरे से चिन्तन आरम्भ हुआ।
प्रसिद्ध इतिहासकार '''बिपन चंद्र''' के अनुसार १९वीं शताब्दी में ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रतिक्रिया हुई। ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार, औपनिवेशिक संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान के प्रसार से भारतीयों के लिए यह आवश्यक हो गया कि वे अपना आत्मनिरीक्षण करें। यूँ तो यह चेतना हर समाज और हर स्थान पर अलग-अलग समय पर आयी किन्तु सबको एहसास हो गया कि धर्मिक सांस्कृतिक जीवन में सुधार आवश्यक है।
इस चेतना से पूर्व साहित्य राज दरबारों में ही सिर झुका रहा था, किन्तु अब साहित्यकार समाज से जुड़कर समाज में फैले आडम्बर, रूढ़ि, वर्ण-वर्ग भेद, कुरीति, सती प्रथा, बाल-विवाह आदि का विरोध करने लगे। विधवा विवाह का समर्थन और सामंती व्यवस्था, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद का विरोध प्रखर हुआ। पत्र-पत्रिकाओं के विकास के साथ-साथ खड़ी बोली हिंदी और गद्य का भी विकास हुआ। १८२६ ई॰ में जुगल किशोर सुकुल द्वारा प्रथम हिंदी साप्ताहित पत्रिका "उदन्त मार्तंड" का संपादन किया गया। देश में स्वराज्य की इच्छा जगी। व्यापक स्तर पर जन-आन्दोलन शुरू हुए। लोग तार्किक होने लगें और आँख बंद करके किसी पाखण्ड को मानने की जगह उस पर तर्कपूर्ण विचार करने लगें।
भारत में यह ऐसी चेतना पंद्रहवीं शताब्दी में भी देखी गई जब इस्लाम का विधिवत आगमन हुआ। आरंभ में भारतीय संस्कृति के साथ उसका संघर्ष हुआ, फिर आदान-प्रदान की प्रक्रिया घटित हुई। रामविलास शर्मा इसे लोकजागरण का काल मानते हैं। लोकजागरण इसलिए क्योंकि इसका स्रोत भी लोक था और लक्ष्य भी लोक ही था। इस काल के कवियों ने शासन और शासक के बजाय लोकजीवन और परमतत्व में अपनी आस्था प्रकट की। यह परमतत्व किसी के लिए निर्गुण ब्रह्म था तो किसी के सगुण ईश्वर। कबीर, जायसी, तुलसी, सुरदास, गुरू नानक, चैतन्य महाप्रभु जैसे भक्त, समाज सुधारक और कवियों के साथ-साथ अक्क महादेवी (१२वीं शताब्दी), अंडाल, लल्लद्य, मीरा और ताज<ref>सुमन राजे, हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ, २००६ संस्करण, पृष्ठ १५१</ref> जैसी कवयित्रियाँ भी दिखाई देती हैं। इन्होनें मानवीय शोषण के वाहक कुरीति, पाखण्ड व आडम्बर तथा उनकी पोषक सामंती चेतना की जड़ें हिला दी थी। इन्होंने सामंती व्यवस्था पर सवाल खड़े किए तथा स्त्रियों पर लगे परम्परा के बन्धन को तोड़ दिया। भक्त कवयित्रियों में बहिणाबाई, लल्लेश्वरी, कुबरी बाई, ब्रज दासी, मुदुछुपलानी, वीरशैव धर्म संबंधी कन्नड़ कवयित्री भी विख्यात हैं। हालांकि जिस सामन्ती विचार के विरोध में ये लड़ रहे थे, उसी सामन्ती विचार ने धीरे-धीरे इस चेतना को कमजोर किया और साहित्य में रीतिकाल का आगमन हुआ।
==नवजागरण की अवधारणा और यूरोप ==
नवजागरण या पुनर्जागरण की यह प्रक्रिया यूरोप में ८वीं से १६वीं शताब्दी के बीच घटित होती है। समाज में धार्मिक पाखण्ड, परम्परा, कुप्रथा के बढ़ने से धर्म सत्ता का विरोध आरम्भ हुआ। "मैकियावेली" ने अपनी पुस्तक "प्रिंस" में राजा को पोप से अधिक शक्तिशाली कहकर धार्मिक पाखण्ड का विरोध किया।
१६वीं शताब्दी में इटली में एक नयी चेतना का विकास हुआ। इटली की इस चेतना को "ला रिनास्विता" (पुनर्जन्म) कहा गया। इसके अन्तर्गत तार्किक चेतना प्रधान थी। १८वीं शताब्दी में इस चेतना नें फ्रांस में कदम रखा। फ्रांस में इसे "रिनेसाँ" (पुनर्जागरण) नाम दिया गया। इसके केन्द्र में भाईचारा, परम्परा का विरोध, जनवादी चेतना आदि थे। पूरे यूरोप में यहीं चेतना "एनलाइटेनमेंट" (ज्ञानोदय या प्रबोधन) काल में दिखाई पड़ती है। इस समय पूरी शक्ति से इस चेतना ने सामाजिक-राजनीतिक विषमता का अंत किया।
== भारतीय नवजागरण ==
रिनेसांस की चेतना जिस प्रकार यूरोप में एनलाइटेनमेंट काल में अपने प्रफुल्ल रूप में दृष्टिगोचर होती है उसी प्रकार से पंद्रहवीं शताब्दी की चेतना उन्नीसवीं शताब्दी में फोर्ट-विलियम कॉलेज की स्थापना और ज्ञान-विज्ञान के प्रसार में अपने प्रफुल्ल रूप में दृष्टिगोचर होती है। यहीं कारण है कि "बंकिम चंद्र और नामवर सिंह" जैसे समीक्षक भक्तिकाल को रिनेसांस और उन्नीसवीं शताब्दी की चेतना को ज्ञानोदय के तुल्य मानते हैं।
इसी से सहमति जताते हुए "राम स्वरूप चतुर्वेदी" मानते हैं कि पन्द्रहवीं शताब्दी की जागृति इस्लाम के आगमन और उसके सांस्कृतिक मेल-जोल से उत्पन्न हुई और उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान ब्रिटिश के आगमन और दो संस्कृति के मेल से एक रचनात्मक ऊर्जा उत्पन्न हुई। आरम्भ में इस चेतना को समीक्षक नवोत्थान, प्रबोधन, रिनेसांस, पुनरूत्थान आदि कई नामों से पुकारते थे किन्तु १९७७ में रामविलास जी की पुस्तक '''महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण''' में नवजागरण नाम सामने आया और सभी ने उन्नीसवीं शताब्दी को नवजागरण और भक्तिकाल को लोकजागरण नाम से स्वीकार कर लिया।
भारत में यह चेतना हर जगह हर समाज में अलग-अलग वक्त पर आयी किन्तु सबका उद्देश्य सुधार ही लाना था। रेल, तार, डाक का जाल बिछाना, प्रेस खोलना, अंग्रेजी शिक्षा का नींव डालना और फोर्ट विलियम कॉलेज बनवाना सब अंग्रेज़ों ने अपने हित के लिए ही किया पर इससे नवजागरण का विकास भी भारत में हुआ। फोर्ट विलियम कॉलेज के लिए अंग्रेजों द्वारा अपने देश से मंगाई पुस्तकों से हमने भी लाभ ग्रहण किया और हमारी अंधविश्वास में फंसी बुद्धि आधुनिकता की और अग्रसर हुई। प्रेस की स्थापना का श्रेय बैपतिस्ट मिशन के प्रचारक '''कैरे''' को दिया जाता हैं। सन् १८०० में '''वार्ड कैरे''' और '''मार्शमैन''' ने कलकत्ता से थोड़ी दूर श्रीरामपुर में '''डैनिश मिशन''' की स्थापना की।
[[File:Lord Clive meeting with Mir Jafar after the Battle of Plassey.jpg|thumb|left|प्लासी के युद्ध का चित्रण]]
; बांग्ला नवजागरण :
एस॰सी॰ सरकार के अनुसार सन् १७५७ में बंगाल में आधुनिक काल का उदय और मध्य काल का अन्त होता है। इसी वर्ष '''प्लासी के युद्ध''' में अंग्रेजों की विजय और बंगाल के नवाब की पराजय हुई थी। बांग्ला नवजागरण का विशेष महत्व है। फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना भी बंगाल में ही हुई थी। भारतीय नवजागरण का जिन तीन स्थानों पर विशेष प्रभाव पड़ा उनमें बंगाल एक महत्वपूर्ण स्थान हैं। १८२८ में इस चेतना से प्रभावित हो कर "राजा राम मोहन राय" के सहयोग से "ब्रह्म समाज" की स्थापना हुई।[[File:Ram Mohan Roy 1964 stamp of India.jpg|thumb|right|१९६४ में भारत सरकार ने राजा राम मोहन राय जी की स्मृति में एक डाक-टिकट जारी किया]]
१८५६ में स्त्रियों के जीवन में सुधार लाने के प्रयास से "ईश्वर चंद्र विद्यासागर" नें विधवा विवाह का कानून पास कराया। बाल विवाह का विरोध भी तेजी से हुआ। १८४९ में कलकत्ता में स्त्री शिक्षा के लिए "बेथुन स्कूल" की स्थापना हुई। बंगाली नवजागरण के केन्द्र में "बौद्धिकता" की चेतना थी।[[चित्र:Ishwar Chandra Vidyasagar 1970 stamp of India.jpg|200px|right|१९७० में भारत सरकार ने विद्यासागर जी की स्मृति में एक डाक-टिकट जारी किया]][[File:Romesh Chunder Dutt photo.jpg|thumb|left|रमेश चंद्र दत्त]]
इस चेतना के फलस्वरूप लोग पुराने पाखण्डों को आँख बन्द करके विश्वास करने के जगह उस पर तार्किक सवाल करने लगे। वेदांत में कहा गया था कि सभी ब्रह्म हैं, इस कारण सभी में अंहकार की भावना ने घर कर लिया था। इसे तोड़ने के लिए नववेदांत अर्थात वेदों की नयी व्याख्या हुई। १८२३ में भारत में अंग्रेजों में एक आज्ञापत्र जारी किया जिससे समाचार पत्रों पर प्रतिबंध लगा दिए गए। राजा राममोहन राय ने ने इसका डटकर विरोध किया और कलकत्ता उच्च न्यायालय में इसके विरुद्ध एक याचिका दाखिल कर दी। '''रमेशचंद्र दत्त''' के अनुसार संवैधानिक ढंग से अधिकार प्राप्त करने का आरंभ यहीं से होता है। इससे लोगों में अपने अधिकारों के प्रति सजगता और अन्याय के विरोध में शक्ति आयी।
; उर्दू नवजागरण :[[File:Mirza Asadullah Baig Khan ghalib.jpg|thumb|right|ग़ालिब]]
उर्दू के क्षेत्र में नवजागरण की चेतना उसी वक्त से दृष्टिगोचर होती है, जब रीतिकाल चल ही रहा था। उस वक़्त ग़ालिब, सय्यद अहमद, मीर और हाली (मुक़दमा शेर-ओ-शायरी) जैसे समाजसुधारक समाज में फैल रहे धार्मिक आडम्बर का विरोध कर रहे थें। ग़ालिब कहते हैं -
{{block center|"ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर<br>
या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा न हो।"}}
वहीं मीर दीन-ओ-मज़हब की बात पूछने वालों से कहते हैं -
{{block center|'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो<br>
क़श्क़ः खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया।}}
; मराठी नवजागरण :
[[File:Ranade Statue.jpg|thumb|right|महादेव गोविंद रानाडे जी का स्मारक]][[File:Mphule.jpg|thumb|left|ज्योतिबा फुले]][[चित्र:Atmaram Pandurang.jpg|thumb|right|आत्माराम पाण्डुरंग]]
नवजागरण के तीन महत्वपूर्ण स्थानों में महाराष्ट्र का भी महत्वपूर्ण नाम है। मराठी नवजागरण के केन्द्र में दलित चेतना थी। समाज के पिड़ितों के उद्धार के लिए यहाँ १८६७ में आत्माराम पाण्डुरंग जी ने अन्य समाजसेवियों के सहयोग से "प्रार्थना समाज" की स्थपना की। इस नवजागरण के विकास में "आत्माराम पांडुरंग, ज्योतिबा फुले, महादेव गोविंद रानाडे" नें सहयोग दिया।
; केरल नवजागरण :
[[चित्र:Narayana Guru.jpg|thumb|left|नारायण गुरु]]
केरल नवजागरण के केन्द्र में भी दलित चेतना काम कर रही थी। "नारायण गुरू" इस नवजागरण के प्रमुख सहयोगकर्ता थें। उन्होनें दक्षिण भारत में दलितों के उद्धार के लिए विशेष भूमिका का संचार किया। दरअसल वह एक ऐसे धर्म की खोज में थे, जहाँ आम से आम आदमी भी जुड़ाव महसूस कर सके। नारायण गुरु के अनुसार सभी मनुष्यों के लिए एक ही जाति, एक धर्म और एक ही ईश्वर होना चाहिए। नारायण गुरु मूर्तिपूजा के तो विरोधी थे पर वह राजा राममोहन राय की तरह मूर्तिपूजा का विरोध नहीं कर रहे थे। वह ईश्वर को आम आदमी से जोड़ना चाह रहे थे। आम आदमी को एक बिना भेदभाव का ईश्वर देना चाहते थे। उन्ही दिनों गाँधी जी भी अछूत उद्धार की लड़ाई लड़ रहे थे और इन दोनों की मुलाकात भी इस दौरान हुई।
; तमिल नवजागरण :
[[File:PeriyarEVRStamp.jpg|thumb|right|इरोड वेंकट नायकर रामासामी]]
"इरोड वेंकट नायकर रामासामी(पेरियार)" के नेतृत्व में दलित चेतना का समर्थन करते हूए तमिल नवजागरण ने भी अपनी विशेष भूमिका अदा की। पेरियार ने जस्टिस पार्टी का गठन किया जिसका सिद्धांत स्वाभिमानी हिन्दुत्व का विरोध था। जो दलित समाज के विनाश का एकमात्र कारण था।
; उड़िया नवजागरण :
[[File:Fakir Mohan Senapati.jpg|thumb|left|फकीर मोहन सेनापति]]
उड़िया नवजागरण नें अन्नदाता किसानों को केन्द्र में रखा। साथ ही मजदूर वर्गों से सहानुभूति जतायी। इसका नेतृत्व "फकीर मोहन सेनापति" द्वारा हुआ। उन्होंने ना केवल समाजसेवियों की तरह लड़कर बल्कि कवि के रूप में भी उन्होंने '''अबसर-बासरे''', '''बौद्धावतार काव्य''' आदि लिखे, जिसमें कवि की भावात्मकता एवं कलात्मकता का रम्य रूप दृश्यमान होता है।
== हिन्दी नवजागरण ==
हिन्दी नवजागरण से पूर्व बांग्ला नवजागरण और बंकिमचंद्र आदि लेखकों की दृष्टि प्रायः '''सोनार बांग्ला''' से आगे नहीं जाती। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध गद्यकार '''चिपलूणकर''' वर्ण-भेद की खाई नहीं पार कर पाये थे, किन्तु हिन्दी का क्षेत्र बड़ा था। हम कह सकते है कि नवजागरण की चेतना अपने विकसित रूप में हिन्दी नवजागरण में ही दिखती है। अभी तक दलित, मजदूर और किसान चेतना से संबंधित सामाजिक विषय केन्द्र में थे। पहली बार 'राष्ट्रीयता' को केन्द्र में हिन्दी नवजागरण ने रखा। राम विलास शर्मा जैसे आलोचक हिन्दी नवजागरण की शुरूआत "१८५७ की राज्यक्रांति" के बाद से मानते है, किन्तु इस नवजागरण को विकसित करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका "भारतेन्दु" ने निभाई।[[File:Bharatendu Harishchandra 1976 stamp of India.jpg|thumb|right|१९७६ में भारत सरकार ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी की स्मृति में एक डाक-टिकट जारी किया]] उनके द्वारा सम्पादित विभिन्न पत्रिकाओं का हिन्दी नवजागरण के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा। उनके द्वारा सम्पादित "कवि वचन सुधा (१८६८), हरिश्चंद्र मैगजिन (१८७३), बाला बोधिनी (१८७४)" में देश की उन्नति और देश के विकास को रोकने वाली कुप्रथाओं की विवेचना की गई है। बाला बोधिनी पत्रिका तो मूल रूप से स्त्रियों के लिए ही निकाली गई थी। १८८४ में उन्होनें देश के विकास के लिए एक महत्वपूर्ण भाषण दिया, जो "बलिया व्याख्यान" के नाम से प्रसिद्ध है। १८७० में अपने युवावस्था में ही उन्होनें "लेवी प्राण लेवी" लेख में अंग्रेजों के विरूद्ध बात की। एक युवा का ऐसा साहस देख सभी के भीतर देश प्रेम की भावना उमड़ उठी। नवजागरण की इस भावना से प्रेरित "बालकृष्ण भट्ट" ने साहित्य को जनता से जोड़ते हुए कहा––"साहित्य जन समूह के हृदय का विकास है।" १८८४ में भारतेन्दु जब महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं की सूची '''काल चक्र''' नाम से निर्मित कर रहे थे, उसी वक्त उन्होंने '''हिन्दी नये चाल में ढली (१८७३)''' का भी उल्लेख किया। प्रश्न यह है कि दुनिया की प्रसिद्ध घटनाओं में हिन्दी का नये चाल में ढलना भी क्या एक प्रसिद्ध घटना है? अगर है तो १८७३ को ही इसके घटित होने का समय क्यों चुना गया? इसका उत्तर आचार्य शुक्ल ने दिया––"संवत १९३० (सन् १८८७३ ई॰) में उन्होंने '''हरिश्चन्द्र मैगजीन''' नाम की एक मासिक पत्रिका निकाली जिसका नाम ८ संख्याओं के उपरांत '''हरिश्चन्द्र चन्द्रिका''' हो गया। हिन्दी गद्य का ठीक परिष्कृत रूप पहले-पहल इसी 'चन्द्रिका' में प्रकट हुआ। भारतेंदु ने नई सुधरी हुई हिन्दी का उदय इसी समय से माना है। उन्होंने '''कालचक्र''' नाम की अपनी पुस्तक में नोट किया है कि, "हिन्दी नये चाल में ढली, सन् १८७३ ई॰।" भारतेन्दु लोकभाषा के समर्थक थे। वे टकसाली भाषा के विरूद्ध थे। टकसाली अर्थात गढ़ी हुई भाषा। भारतेन्दु भाषा का सहज, सरल, प्रवाहमय और विनोदपूर्ण रूप स्वीकार करते थे। भारतेन्दु 'निज भाषा की उन्नति' के पक्षधर थे। वे कहते थे :
{{block center|"निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल<br>
बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटत ना हिय को सूल।"}}
[[File:William Carey.jpg|thumb|left|कैरे]] नवजागरण के संदर्भ में देखें तो हिंदी नवजागरण में भी छापेखाने और पत्र-पत्रिकाओँ की महत्वपूर्ण भूमिका रही। '''कैरे''' ने पंचानन कर्मकार और मनोहर की सहायता से सन् १८०३ में देवनागरी अंकों की ढलाई की और एक प्रेस खोला। श्रीरामपुर से ही दो पत्र भी प्रकाशित हुए––'''समाचार दर्पण''' और '''दिग्दर्शन'''। इसके बाद तो देश-भर में धड़ाधड़ छापाखाने खुलने और समाचार पत्र निकलने लगे। इन पत्रिकाओं द्वारा नवजागरण की चेतना सारे हिन्दी प्रदेश के साथ-साथ पूरे भारत में फैली। सन् १८२६ में हिन्दी का प्रथम पत्र 'उदंत मार्तंड' प्रकाशित हुआ। कुछ प्रमुख पत्र-पत्रिकाओँ का उल्लेख निम्नवत है ––
{| class="wikitable"
|-
! पत्रिका !! सम्पादक !! वर्ष !! स्थान
|-
| उदन्त मर्तंड साप्ताहिक || जुगल किशोर || ३० मई १८२६ || कलकत्ता
|-
| बंगदूत साप्ताहिक || राजाराम मोहन राय || १८२९ || कलकत्ता
|-
| बनारस अखबार साप्ताहिक || राजा शिव प्रसाद सिंह सितारे हिंद || १८४५ || बनारस
|-
| सुधाकर साप्ताहिक || बाबु तारा मोहन मित्र || १८५० || काशी
|-
| प्रजा हितैषी || राजा लक्ष्मण सिंह || १८५५ || आगरा
|-
| कवि वचन सुधा-मासिक, हरिश्चन्द्र मैगजीन-मासिक, बालाबोधिनी-मासिक || भारतेंदु || १८६८, १८७३, १८७४ || काशी (बनारस)
|-
| हिन्दी प्रदीप-मासिक || बाल कृष्ण भट्ट || १८७७ || प्रयाग
|-
| आनंद कादम्बिनी-मासिक || बदरी नारायण चौधरी || १८८१ || मिर्जापुर
|-
| भारतेंदु || पं॰ राधा चरण गोस्वामी || १८८४ || वृंदावन
|-
| ब्राह्मण-मासिक || प्रताप नारायण मिश्र || १८८३ || कानपुर
|-
| सरस्वती || चिंतामणि घोष, श्याम सुंदर दास(१९०२), महावीर प्रसाद द्विवेदी (१९०३) || १९०० || काशी बाद में इलाहाबाद
|}
भारतेंदु के सामने संपूर्ण भारतवर्ष था न कि भारतवर्ष का कोई एक अंचल। वे '''भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है''' के संबंध में चिंतित थे। उन्होंने लिखा है––"भाई हिन्दुओ ! तुम भी मतमतांतर का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामंत्र का जप करो। जो हिन्दुस्तान में रहे, चाहे किसी रंग, किसी जाति का क्यों न हो, वह हिन्दू है। हिन्दू की सहायता करो। बंगाली, मरट्ठा, पंजाबी, मद्रासी, वैदिक, जैन, ब्राह्मण, मुसलमान सब एक का हाथ एक पकड़ो। कारीगरी जिससे तुम्हारे यहाँ बढ़े, तुम्हारा रुपया तुम्हारे ही देश में रहे, वह करो। देखो, जैसे हजार धारा होकर गंगा समुद्र में मिलती है, वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हजार तरह से इँगलैंड, फरांसीस, जर्मनी, अमेरिका को जाती है।"
नवजागरण की चेतना का ही असर था कि कई सारी स्त्रियों ने भी रचना करना आरम्भ किया क्योकि यह बात बिल्कुल सटीक है कि अपने निजी समस्या को हम स्वयं ही सबसे अच्छी तरह अभिव्यक्त कर सकते है।[[चित्र:Pandita Ramabai Sarasvati 1858-1922 front-page-portrait.jpg|left|200px|पंडिता रमाबाई]]नवजागरण के पश्चात कुछ प्रमुख महिला रचनाकार इस प्रकार हैंः- "एक अज्ञात हिन्दू महिला/ पंडिता रमाबाई (सीमंतनी उपदेश१८८२), बंग महिला (दुलाईवाली, चंद्र देव से मेरी बातें), सरस्वती गुप्ता (राजकुमार १८९८), साध्वी सती पति प्राणा अबला (सुहासिनी१८९०), प्रियवंदा देवी (लक्ष्मी), हेम कुमारी चौधरी (आदर्शमाता), यशोदा देवी (वीर पत्नी)।१८७५ में आर्य समाज की स्थापना भी हिन्दी नवजागरण से प्रेरित थी। भारतेन्दु ने वैष्णव भक्ति के लिए "तदीय समाज" की स्थापना भी की थी। साथ ही प्रताप नारायण मिश्र, राजा लक्ष्मण सिंह, शिव प्रसाद सिंह सितारे हिन्द आदि कवियों ने भी नवजागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सरस्वती पत्रिका और महावीर प्रसाद द्विवेदी ने तो हिन्दी भाषा के लिए जो भी किया वह अद्वितीय है।[[File:Mahavir Prasad Dwivedi 1966 stamp of India.jpg|thumb|right|१९६६ में भारत सरकार ने महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की स्मृति में एक डाक-टिकट जारी किया]]
अंग्रेज के नीतियों के प्रति भारतेन्दु अपने देशवासियों को सचेत करते हैं। वे चाहते थे कि जो लोग अंग्रेजों के झूठे वादों और रूप को देख उनका सच नहीं देख पाते वे उनके सही रूप से अवगत हो सके।
{{block center|भीतर-भीतर सब रस चुसे, हँसी-हँसी के तन-मन-धन लुटे<br>
जाहिर बातन में अति तेज, क्यों! सखी? साजन नहीं अंग्रेज}}
आगे चल कर जनता में भाईचारे की भावना को भी साहित्य द्वारा सभी में विकसित करने की कोशिश भी की गई। इस भावना को विकसित करने में सबसे महत्वपूर्ण योगदान द्विवेदी युगीन कवियों का था।
{{block center|<poem>जैन, बुद्ध, पारसी, यहुदी, मुस्लिम, सिख, ईसाई
कोटि कंठ से मिल कर कह दो हम सब हैं भाई-भाई
पूण्य भूमि है, स्वर्गीय भूमि, पूज्य भूमि है, देश यही
इससे बढ़कर या ऐसी ही दूनिया में है जगह नहीं।</poem>}}
भारत को विकास की दिशा में गमन कराने में भी इन कवियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इनके अनुसार देश की उन्नति हमसे और हमारी उन्नति देश से जुरी हैं।
{{block center|भारत की उन्नति सिद्धी में हम सब का कल्याण है<br>
दृढ़ समझो इस संकल्प को हम शरीर यह प्राण है}}
देश में राष्ट्रीयता की भावना को विकसित करते और उसके आजादी की भावना को जन-जन तक पहुँचाते हुए कवियों ने कहा हैंः-
<center><poem>देश भक्त वीरों मरने से नेक ना डरना होगा
प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा</poem></center>
स्त्रियों को इससे पहले केवल भोग की वस्तु समझा जाता था किन्तु अब स्त्रियों की पीड़ा और उसके कष्टों पर लिखा जाने लगाः-
<poem><center>अबला नारी हाये तुम्हारी यहीं कहानी
आंचल में है दुध और आँखों में पानी</poem></center>
मैथली शरण गुप्त तो स्त्रियों को श्यामा की भाँति अपने पीड़ा का नाश करने के लिए उत्तेजित करते हैंः-
<poem><center>नारी पर नर का कितना अत्याचार है
लगता है विद्रोह मात्र ही अब उसका प्रतिकार है</poem></center>
नवजागरण की जिस चेतना को भारतेन्दु जी ने जन्म दिया था वह द्विवेदी युग से गुजरते हुए छायावाद युग में पहँचती है जहाँ वह सबसे प्रभावशाली रूप में द्रष्टव्य है। पुराने गौरव के साथ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित राष्ट्रीयता की एक कविता निम्न हैः-
<poem><center>हिमाद्री तुंग श्रृ्ंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती</poem></center>
इन कवियों ने व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्रीय तक का सफर शुरू किया। ये कवि सबसे पहले पाखण्ड और धर्म में बंधे लोगों को आजाद करने की कोशिश की फिर राष्ट्रीय को आजाद करने के लिए जोर लगाया। इन्होनें अपने सुख में जनता का सुख और जनता के दुःख में अपना दुःख समझा। निराला की कविता की यह पंक्तियां इस बात को पूर्ण सत्य सिद्ध करती है:-
<poem><center>मैने मैं शैली अपनाई, देखा दुःखी निज भाई
दुःख की छाया पड़ी हृदय में झट उमड़ वेदना आयी।</poem></center>
इसके साथ ही छायावाद में ही उन विरोधियों का भी मुँह बंद हुआ जो मानते थे खड़ी बोली हिन्दी में उत्तम कविता नहीं हो सकती क्योंकि वह नीरस हैं। निम्न कविता हिन्दी में लिखी एक सुंदर कविता का उदाहरण है :-
<poem><center>तुम तंग हिमालय शृंग, मैं गति सूर सरिता
तुम विमल हृदय उच्चवास, मैं कांत कामिनी कविता</poem></center>
निराला ने तो स्त्रियों को उस काली की तरह चित्रित किया है जो ताण्डव कर अपने सारे दुःखो का नाश कर सकती हैं।
<Poem><center>एक बार बस और नाच तू श्यामा!
सामान सभी तैयार,
कितने ही हैं असुर , चाहिए कितने तुझको हार?
कर मेखला मुण्ड मालाओं से, बन मन अभिरामा...
एक बार बस और नाच तू श्यामा!</poem></center>
== संदर्भ ==
#महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण-राम विलास शर्मा
#भारतेन्दु हरिश्चंद्र और हिन्दी नवजागरण की समस्याएँ-राम विलास शर्मा
#हिन्दी नवजागरण की समस्याएं-नामवर सिंह(आलोचनात्मक निबंध)
#आधुनिक साहित्यःविकास और विमर्श--पृष्ठ 140-डाँ. प्रभाकर सिंह
#हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास--पृष्ठ 277-294-बच्चन सिंह
#हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास--रामस्वरूप चतुर्वेदी
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आर्थिक भूगोल/लौह एवं इस्पात उद्योग
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[[चित्र:Durgapur Steel Plant.jpg|right|right|300px|दुर्गापुर इस्पात कारखाना]]
==परिचय==
इस अध्याय में हम लौह एवं इस्पात उद्योग के बारे में अध्ययन करेंगे।[[चित्र:Bokaro Steel Plant Main Gate.jpg|right|thumb|300px|बोकारो स्टील प्लांट का मुख्यद्वार]]
लौह इस्पात उद्योग को किसी देश के अर्थिक विकास की धुरी माना जाता है। यह एक आधारभूत उद्योग हैं क्योंकि इसके उत्पाद बहुत से उद्योगों के लिये आवश्यक कच्चे माल के रूप में प्रयुक्त होते हैं।
भारत में इसका सबसे पहला बड़े पैमाने का कारख़ाना 1907 में झारखण्ड राज्य में सुवर्णरेखा नदी की घाटी में साकची नामक स्थान पर जमशेदजी टाटा द्वारा स्थापित किया गया गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत इस पर काफ़ी ध्यान दिया गया और वर्तमान में 7 कारखानों द्वारा लौह इस्पात का उत्पादन किया जा रहा है।<ref name="GohMorgan1982">{{cite book|author1=Cheng Leong Goh|author2=Gillian Clare Morgan|title=Human and Economic Geography|url=https://books.google.com/books?id=ecdjAAAACAAJ|year=1982|publisher=Oxford University Press|isbn=978-0-19-582816-0}}</ref>
लोहा इस्पात अनेक छोटे-बड़े उद्योगों की आधारभूत सामग्री है। सूई से लेकर पोत निर्माण तक लोहा इस्पात उद्योग पर ही आश्रित है। किसी देश के औद्योगिक विकास का मापदंड वहां का लोहा इस्पात ही है। वास्तव में आज हम लोहा इस्पात युग में जी रहे हैं।लोहा एवं इस्पात आधुनिक सभ्यता के लिए वरदान ही नहीं बल्कि दैनिक जीवन की अनिवार्य वस्तु बन गया है। विश्व के कुल धातु उत्पादन का 90% से अधिक लोहा होता है और आर्थिक एवं तकनीकी विकास के साथ साथ इसका उत्पादन और इसकी मांग दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है। इसे आधुनिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी कहा जाता है।<br>लोहा तथा इस्पात बनाने के लिए लौह अयस्क से लौहाशं को कोक, चारकोल, चूना पत्थर आदि मिलाकर भट्टी में प्रगलन के लिए झोंका जाता है। इसे अत्यधिक तापमान पर पिलाने के लिए गर्म हवा, ऑक्सीजन अथवा ट्रेन के तीव्र झोंको द्वारा भट्टियों में डाला जाता है। इन भट्टियों को झोंका भट्टी कहते हैं। <ref name="BugayevTretyakov2001">{{cite book|author1=K. Bugayev|author2=E. Tretyakov|title=Iron and Steel Production|url=https://books.google.com/books?id=MJdIVtmwuUsC|year=2001|publisher=The Minerva Group, Inc.|isbn=978-0-89499-109-7}}</ref>पिघला हुआ लोहा सांचे में डाल दिया जाता है यहां पर ठंडा होकर ठोस बन जाता है इसे कच्चा लोहा कहते हैं।
==उद्योगों को प्रभावित करने वाले कारक==
उद्योगों की अवस्थिति अनेक कारकों से प्रभावित होती है। इनमें कच्चे माल की उपलब्धि, ऊर्जा, बाज़ार, पूंजी, परिवहन, श्रमिक आदि प्रमुख हैं। इन कारकों का सापेक्षिक महत्त्व समय, स्थान, आवश्यकता, कच्चे माल और उद्योग के प्रकार के अनुसार बदलता है तथापि आर्थिक दृष्टि से विनिर्माण उद्योग वही स्थापित किये जाते हैं, जहाँ उत्पादन लागत तथा निर्मित वस्तुओं को उपभोक्ताओं तक पहुँचाने की लागत सबसे कम हो। परिवहन लागत, काफी हद तक कच्चे माल और निर्मित वस्तुओं के स्वरूप पर निर्भर करती है।
भौगोलिक कारकों के अतिरिक्त ऐतिहासिक, राजनैतिक तथा आर्थिक तत्त्व भी उद्योगों के स्थानीयकरण को प्रभावित करते हैं। कई बार ये तत्त्व भौगोलिक कारकों से अधिक प्रभावशाली होते हैं।
उद्योगों को प्रभावित करने वाले कारकों को दो भागों में बाँटा जा सकता है।<br>
'''भौगोलिक कारक'''- इसके अंतर्गत निम्नलिखित तत्त्वों को शामिल किया जाता है-
===कच्चा माल===
उद्योग सामान्यतः वहीं स्थापित किये जाते हैं जहाँ कच्चे माल की उपलब्धता होती है। जिन उद्योगों में निर्मित वस्तुओं का भार, कच्चे माल की तुलना में कम होता है, उन उद्योगों को कच्चे माल के निकट ही स्थापित करना होता है। जैसे- चीनी उद्योग। गन्ना भारी कच्चा माल है जिसे अधिक दूरी तक ले जाने से परिवहन की लागत बहुत बढ़ जाती है और चीनी के उत्पादन मूल्य में वृद्धि हो जाती है।<br>लोहा और इस्पात उद्योग में उपयोग में आने वाले लौह-अयस्क और कोयला दोनों ही वज़न ह्यस और लगभग समान भार के होते हैं। अतः अनुकूलनतम स्थिति कच्चा माल व स्रोतों के मध्य होगी जैसे जमशेदपुर।
===शक्ति (ऊर्जा)===
उद्योगों में मशीन चलाने के लिये शक्ति की आवश्यकता होती है। शक्ति के प्रमुख स्रोत- कोयला, पेट्रोलियम, जल-विद्युत, प्राकृतिक गैस तथा परमाणु ऊर्जा है। लौह-इस्पात उद्योग कोयले पर निर्भर करता है, इसलिये यह उद्योग खानों के आस-पास स्थापित किया जाता है। छत्तीसगढ़ का कोरबा तथा उत्तर प्रदेश का रेनूकूट एल्युमीनियम उद्योग विद्युत शक्ति की उपलब्धता के कारण ही स्थापित हुए हैं।
===श्रम===
स्वचालित मशीनों तथा कंप्यूटर युग में भी मानव श्रम के महत्त्व को प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता। अतः सस्ते व कुशल श्रम की उपलब्धता औद्योगिक विकास का मुख्य कारक है।<br>
जैसे- फिरोजाबाद में शीशा उद्योग, लुधियाना में होजरी तथा जालंधर व मेरठ में खेलों का सामान बनाने का उद्योग मुख्यतः सस्ते कुशल श्रम पर ही निर्भर है।
===परिवहन एवं संचार===
कच्चे माल को उद्योग केंद्र तक लाने तथा निर्मित माल की खपत के क्षेत्रों तक ले जाने के लिये सस्ते एवं कुशल यातायात की प्रचुर मात्रा में होना अनिवार्य है। मुम्बई, चेन्नई, दिल्ली जैसे महानगरों में औद्योगिक विकास मुख्यतः यातायात के साधनों के कारण ही हुआ है।
===बाज़ार===
औद्योगिक विकास में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका तैयार माल की खपत के लिये बाज़ार की है।
===सस्ती भूमि और जलापूर्ति===
उद्योगों की स्थापना के लिये सस्ती भूमि का होना भी आवश्यक है। दिल्ली में भूमि का अधिक मूल्य होने के कारण ही इसके उपनगरों में सस्ती भूमि पर उद्योगों ने द्रुत गति से विकास किया है।
उपर्युक्त भौगोलिक कारकों के अतिरिक्त पूंजी, सरकार की औद्योगिक नीति, औद्योगिक जड़त्व, बैंकिग तथा बीमा आदि की सुविधा ऐसे गैर-भौगोलिक कारक हैं जो किसी स्थान विशेष में उद्योगों की स्थापना को प्रभावित करते हैं।
==वितरण एवं व्यापार==
लौह और इस्पात उद्योग की वृद्धि और विकास वैश्विक अर्थव्यवस्था का प्रतिबिंब है। लोहा और इस्पात उद्योग अपने विकास और उत्पादन पैटर्न में एक बदलती प्रकृति को दर्शाता है।
[[File:Bethlehem Steel.jpg|thumb|300px|right|]] के मध्य में अमेरिका, पश्चिमी यूरोप और जापान के अपेक्षाकृत विकसित देशों ने दुनिया के इस्पात उत्पादन का लगभग दो-तिहाई हिस्सा उत्पादन किया। लेकिन धीरे-धीरे स्थानिक पैटर्न बदल गया और अब यह उत्पादन का हिस्सा विकासशील क्षेत्रों में स्थानांतरित हो गया है। <ref name="Saxena2013">{{cite book|author=H. M. Saxena|title=Economic Geography|url=https://books.google.com/books?id=ZvyLswEACAAJ|year=2013|publisher=Rawat Publications|isbn=978-81-316-0556-1}}</ref>पिछली सदी के अंत तक, चीन, दक्षिण कोरिया, ब्राजील और भारत जैसे देशों में इस्पात उत्पादन में वृद्धि ने दुनिया में इस्पात उत्पादन के पूरे ढांचे को बदल दिया है।
अब दुनिया में लोहे और स्टील के मुख्य उत्पादक चीन, जापान, अमेरिका, रूस, जर्मनी, दक्षिण कोरिया, ब्राजील, यूक्रेन, भारत, फ्रांस, इटली और ग्रेट ब्रिटेन हैं। अन्य इस्पात उत्पादक देश दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया, नीदरलैंड, चेक गणराज्य, रोमानिया, स्पेन, बेल्जियम, स्वीडन, आदि हैं।दुनिया के प्रमुख देशों में लोहा और इस्पात उद्योग का स्थानिक वितरण पैटर्न इस प्रकार है:-
{| class="wikitable"
|-
! देशों के नाम !! कच्चा लोहा !! कच्चा इस्पात
|-
| चीन ||131.23 ||128.5
|-
| जापान||80.5 || 105.4
|-
| संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ||47.9||102.0
|-
| रूस || 43.3|| 55.6
|-
| जर्मनी|| 27.3|| 41.7
|-
| दक्षिण कोरिया|| 24.8|| 43.4
|-
| ब्राजील|| 27.7|| 27.8
|-
| यूक्रेन|| 25.7|| 31.7
|-
| भारत|| 21.3|| 26.9
|}
यह इस तालिका से स्पष्ट हो जाता है कि चीन दुनिया में लोहे और इस्पात का प्रमुख उत्पादक है, जिसका उत्पादन कच्चा लोहा का लगभग 23.9% और दुनिया के उत्पादन का 17% कच्चा इस्पात का है।जापान 14.7% कच्चा लोहा और 13.9% कच्चा इस्पात उत्पादन के साथ दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।
संयुक्त राज्य अमेरिका उत्पादन में पहले प्रथम स्थान पर था परन्तु अब अमेरिका रूस के बाद दुनिया में तीसरे स्थान पर है। भारत की स्थिति लौह और इस्पात उत्पादन में 9 वें स्थान पर है।क्रमशः 3.9 और 3.6% कच्चा लोहा और कच्चे इस्पात का उत्पादन होता है।[[चित्र:Steel production by country map 2023.png|right|center|450px|सन २००७ में इस्पात का वैश्विक उत्पादन]]<ref name="Khullar">{{cite book|author=D R Khullar|title=Geography Textbook-Hindi|url=https://books.google.com/books?id=8aE_DAAAQBAJ|publisher=New Saraswati House India Pvt Ltd|isbn=978-93-5041-244-2}}</ref>
{| class="wikitable sortable plainrowheads" ;"
|+इस्पात निर्यातक देश (2018)
|-
! scope="col" | #
! scope="col" | देश
! scope="col" | निर्यात (दस लाख मिट्रिक टन में)
|-
|1||{{flag|CHN}}||68,8
|-
|2||{{flag|JPN}}||35,8
|-
|3||{{flag|RUS}}||33,3
|-
|4||{{flag|KOR}}||30,0
|-
|5||{{flag|DEU}}||26,0
|-
|6||{{flag|ITA}}||20,6
|-
|7||{{flag|TUR}}||19,2
|-
|8||{{flag|BEL}}||18,0
|-
|9||{{flag|UKR}}||15,1
|-
|10||{{flag|FRA}}||14,4
|}
===चीन===
चीन में लोहे के फैब्रिकेटर की सबसे पुरानी प्रणाली है, जैसा कि इसके ऐतिहासिक रिकॉर्ड से स्पष्ट होता है।1953 में उनकी पंचवर्षीय योजना को अपनाने से पहले तक, चीन के पास आधुनिक प्रकार का लोहा और इस्पात निर्माण नहीं था।
चीन ने लोहे और इस्पात उद्योग का विकास किया है और अब यह दुनिया में लोहे और इस्पात का सबसे अधिक उत्पादन करने वाला देश है।1973 के बाद से, चीन में इस्पात उत्पादन में वृद्धि हुई है और 15 वर्षों के भीतर चीन कच्चे इस्पात के उत्पादन को 217 % तक बढ़ाने में सक्षम रहा था।उस अवधि के खपत में 300 % की वृद्धि हुई हैं। यह वृद्धि दर स्पष्ट रूप से औद्योगीकरण की तेज गति को प्रकट करती है जो अभी चीन में चल रही है।लोहा और इस्पात उद्योग अनशन, वुहान और पाओटो त्रिकोण में केंद्रित है। जापानी द्वारा मैनचुरिया के अनशन में चीनी मुख्य भूमि में सबसे बड़ी लोहे और इस्पात की फैक्ट्री स्थापित की गई थी, लेकिन रूसी मदद से चीनियों द्वारा बहुत विस्तार किया गया। मंचूरिया में अन्य लौह और इस्पात उत्पादन केंद्र फ़ुषुन, पेनकी, शेनयांग, हार्फिन और किरिन हैं।वुहान स्टील प्लांट अभी विस्तार की प्रक्रिया में है। अन्य कम व्यापक एवं नए स्टील प्लांट टायर्सिन, तांगशान, नानकिंग, शंघाई, आदि में बनाए जा रहे हैं। चीन के महत्वपूर्ण लौह एवं इस्पात उद्योग के क्षेत्र निम्नलिखित हैं :-
# दक्षिणी मंचूरिया,अनशन में चीन का सबसे बड़ा स्टील प्लांट है एवं पेंसिहु,मुक्डन में अन्य संयंत्र हैं।
# शांसी लोहे और इस्पात उत्पादन का पुराना क्षेत्र है। इस क्षेत्र में ताइयुआन को एक प्रमुख इस्पात केंद्र के रूप में विकसित किया गया है।
# निचली यांग्त्ज़ी घाटी:- इस क्षेत्र में हैंकोव, शंघाई, हयांग और चुंगकिंग लोहा एवं इस्पात उद्योग के मुख्य केंद्र हैं।
# अन्य केंद्र पाओटो, चिनलिंग चेन, कैंटन, सिंगताओ और हुआंगसिह में स्थित हैं।<br>
चीन में लोहे और इस्पात उद्योग का विकास शानदार रहा है। 1973 के बाद से, चीन ने स्टील के उत्पादन में 220 प्रतिशत की वृद्धि की है, हालाँकि स्टील की खपत में भी 300 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है।
===जापान===
कच्चे माल (लोहा और कोयला) की कमी के बावजूद, जापान दुनिया के प्रमुख इस्पात उत्पादकों में से एक बन गया है। चीन के बाद जापान दुनिया में कच्चा लोहा और कच्चा इस्पात का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।पहला स्टील प्लांट यावता जो कि 1901 में सरकार द्वारा बनाया गया था। जापान की लगभग पाँचवीं इस्पात क्षमता का एक बड़ा केंद्र यवता भारी उद्योग है।
होन्शू में कामिशी एवं होक्काइडो में मुरोरन छोटे टीडवाटर सम्बंधित उद्योग हैं। यह क्षेत्रीय खनिज संसाधनों और उन कारखाने से सीधे जुड़े हुए, जिसमें बड़े पैमाने के कारखाने की संख्या केवल कामिशी, कोसाका, ओसारिजावा, हस्सी, होसोकुरा (मियागी) और फुजाइन (इवाते) में है। जापान की आधी से अधिक इस्पात क्षमता दक्षिण मध्य होन्शू के प्रमुख बंदरगाह शहरों के आसपास हीमीजी, कोबे-ओसाका और टोक्यो-याकोहामा क्षेत्रों के पास केंद्रित है। जापान के प्रमुख लौह एवं इस्पात उद्योग के क्षेत्र निम्नलिखित हैं:-
====टोक्यो-याकोहामा क्षेत्र====
इसमें लौह-इस्पात उद्योग के विकास के लिए आवश्यक सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं। टोक्यो खाड़ी के पुनर्ग्रहण ने इस्पात निर्माण इकाइयों के लिए बड़ी, व्यापक भूमि प्रदान की है। टोक्यो-चीन क्षेत्र इस क्षेत्र का सबसे मुख्य क्षेत्र है जिसमें हिटाची और उत्तरी टोक्यो में इस्पात औद्योगिक इकाइयाँ विकसित की गई हैं।
====नागोया क्षेत्र====
यह जापानी इस्पात उत्पादन में लगभग 20 प्रतिशत का योगदान देता है। इस क्षेत्र ने 1950-60 की अवधि के दौरान उद्योगों का भारी विकास देखा था।
====ओसाका-कोबे क्षेत्र====
ओसाका खाड़ी के सिर पर, एक अत्यधिक महत्वपूर्ण औद्योगिक क्षेत्र विकसित हुआ है जिसे किंकी के नाम से जानते हैं। ओसाका बंदरगाह इसका मुख्य केंद्र है।इस क्षेत्र के अन्य केंद्र अमागास्की, कोबे, हेमेगी, सकाई और वाकायमा हैं।
====फुकुओका-यामागुची क्षेत्र====
यह क्यूशू के भीतर जापान के चरम दक्षिण में और होन्शू के पश्चिमी छोर पर स्थित है। पहला सरकारी स्टील प्लांट 1901 में यवाता में स्थापित किया गया था। किता-क्यूशू इस क्षेत्र का एक और उल्लेखनीय लोहा और इस्पात केंद्र है।
====होक्काइडो क्षेत्र====
इस क्षेत्र का मुख्य केंद्र मुर्रन है।स्थानीय कोयले और लौह अयस्क के आधार पर यहां एक बड़े आकार के लोहे और इस्पात उद्योग का विकास हुआ है।जापान के इस्पात संयंत्रों के स्थानीयता में सबसे खास बात यह है कि वे या तो खाड़ी तट पर स्थित हैं या कुछ नहर या नदी पर। यह इस तथ्य के कारण है कि अधिकांश जापानी इस्पात संयंत्र कच्चे माल के लिए बाहर के देशों पर निर्भर रहते हैं। एक और विशेषता यह है कि वे महान औद्योगिक जिलों के बीच में स्थित हैं जो तैयार स्टील के लिए बाजार प्रदान करते हैं। वास्तव में, जापान में लोहे और इस्पात उद्योग का स्थानीयकरण बाजार उन्मुख है।
===संयुक्त राज्य अमेरिका क्षेत्र===
एक समय संयुक्त राज्य अमेरिका लोहे और इस्पात का सबसे अधिक उत्पादन करने वाला देश था, लेकिन अब चीन और जापान के बाद इसकी स्थान दुनिया में तीसरे स्थान पर है। 1629 में अमेरिका में मैसाचुसेट्स में पहले लोहे एवं इस्पात संयंत्र को स्थापित किया गया था। पिछले 380 वर्षों के दौरान यह अमेरिकी इस्पात उद्योग कई परिवर्तनों से गुजरा है। यह परिवर्तन केवल विकास और उत्पादन संरचना में ही नहीं बल्कि स्थानीयकरण संरचना में भी हुआ है। संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रमुख लोहा और इस्पात क्षेत्र इस प्रकार हैं:-
====अपलाशियन या पिट्सबर्ग क्षेत्र====
सभी क्षेत्रों में सबसे महत्वपूर्ण पश्चिमी पेंसिल्वेनिया और पूर्वी ओहियो का उत्तरी अपलाचियन क्षेत्र है।इस जिले में देश की ब्लास्ट फर्नेस क्षमता का लगभग 42.5 प्रतिशत है और इसका केंद्र पिट्सबर्ग दुनिया में इस्पात उद्योग का दूसरा सबसे बड़ा केंद्र है। इस क्षेत्र की मिलें ओहायो नदी की मुख्य जलधाराओं की संकीर्ण घाटियों में लगभग विशेष रूप से स्थित हैं। यह क्षेत्र जिसे अक्सर पिट्सबर्ग-यंगस्टाउन क्षेत्र के रूप में जाना जाता है, इसमें कई जिले शामिल हैं। पिट्सबर्ग जिले में 60 किलोमीटर के पिट्सबर्ग के भीतर ओहियो, मोनोंघेला और एलेघेनी की घाटियों में स्थित कई उद्योग हैं।यंगस्टाउन या लेइ घाटी ’जिले में शेनयांगो और महोनिंग नदियों की घाटियों में उद्योग शामिल हैं। व्हीलिंग, जॉन्सटाउन, स्टेनहिलविले और बेवर फॉल्स अन्य महत्वपूर्ण इस्पात उत्पादक केंद्र हैं।
====झील क्षेत्र====
झील क्षेत्र में क्षेत्र आता है:-
# झील एरी बंदरगाहों, डेट्रोइट, क्लीवलैंड और भैंस, आदि।
# झील मिशिगन, शिकागो-गैरी या कैलुमेंट जिले के प्रमुख के पास के केंद्र,
# झील सुपीरियर क्षेत्र, दुलुथ।<br>
ये जिले उद्योग, कोयला, लोहा और बाजार के स्थानीयकरण में तीन कारकों के लिए कुछ अलग समायोजन का प्रतिनिधित्व करते हैं। एरी झील के तट एपलाचियन कोयले के करीब है, लेकिन दुलुथ क्षेत्र की तुलना में लौह अयस्क से बहुत दूर है। मिशिगन क्षेत्र दोनों के बीच में है। एक महत्वपूर्ण लाभ जो इन सभी जिलों को पिट्सबर्ग क्षेत्र में मिलता है।दूसरी ओर, ये केंद्र बाजार से थोड़ी दूर पर स्थित हैं। उदाहरण के लिए, डुलुथ के पास अपने तत्काल वनभूमि, जंगल, खेत हैं, जिसमें लोहे और स्टील के सामान की बहुत कम मांग है।डेट्रायट संयुक्त राज्य अमेरिका में सबसे बड़ा इस्पात खपत केंद्र है, खासकर अपने ऑटोमोबाइल उद्योग के कारण।
====अटलांटिक सीबोर्ड क्षेत्र====
अटलांटिक सीबोर्ड पर, यह केवल मध्य अटलांटिक क्षेत्र (न्यूयॉर्क, फिलाडेल्फिया और बाल्टीमोर, आदि) है जो महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र का मुख्य लाभ यह है कि दोनों को टिडवाटर के नजदीक होने से संबंधित कुछ फायदा होता है, और पूर्व के बड़े औद्योगिक केंद्रों से निकटता होने से इन्हें और भी अधिक फायदा होता है।<br>
अटलांटिक सीबोर्ड के महान विनिर्माण क्षेत्र, घनी आबादी के क्षेत्र और उत्तरी अमेरिका में सबसे गहन औद्योगिक विकास के केंद्र के पास इसका स्थान सबसे उल्लेखनीय है।<br>मध्य अटलांटिक क्षेत्र एकमात्र प्रमुख क्षेत्र है जिसमें इस अत्यधिक औद्योगिक क्षेत्र में उपलब्ध स्क्रैप की अपेक्षाकृत बड़ी मात्रा के कारण कच्चा लोहा और स्टील का उत्पादन उल्लेखनीय रूप से अनुपात में अधिक होता है।इस क्षेत्र में कई स्टील मिलें हैं जो ब्लास्ट फर्नेस के बिना काम करती हैं, जो अन्य क्षेत्रों, विशेष रूप से उत्तरी अपलाचियन क्षेत्र से आयातित स्क्रैप और कच्चा लोहा दोनों पर निर्भर करती है।
====दक्षिण अप्पलाचियन====
दक्षिणी अपलाचियन के अलबामा में,उत्तरी अमेरिका में कहीं और की तुलना में कच्चे माल बड़ी मात्रा में पाए जाते हैं जबकि अयस्क निम्न श्रेणी का होता है और उसे शाफ्ट खनन की आवश्यकता होती है। चट्टान का अधिकांश भाग चूना है और अयस्क स्व-प्रवाहित होता है। इस क्षेत्र में बड़े औद्योगिक केंद्रों की कमी है। पड़ोस में काफी मात्रा में अधिशेष कच्चा लोहा है जो उत्तर में जाता है।
====पश्चिमी क्षेत्र====
यह क्षेत्र आंतरिक रूप से कोलोराडो से लेकर पश्चिम में कैलिफोर्निया तक फैला हुआ है।
संयुक्त राज्य अमेरिका में इस्पात क्षेत्रों के बीच,यह एक नया क्षेत्र है। पहला स्टील मिल,1882 में प्यूब्लो में स्थापित किया गया था।बाद में कैलिफोर्निया के फोंटाना और यूटा और प्रोवो में स्टील उद्योग विकसित किए गए। इन कारखानों के लिए, लौह अयस्क को वायोमिंग और कोलोराडो से कोयला प्राप्त किया जाता है।
===रूस-यूक्रेन===
1991 में विघटन से पहले, USSR दुनिया का प्रमुख इस्पात उत्पादक देश था। अब रूस और यूक्रेन भी दुनिया के महत्वपूर्ण लोहा और इस्पात उत्पादक हैं।रूस कच्चा लोहा एवं कच्चा इस्पात के उत्पादन में 4 वें स्थान पर है, जबकि यूक्रेन विश्व में 8 वें स्थान पर है।क्रांति के बाद की अवधि में, सोवियत इस्पात उद्योग ने विस्तार हासिल किया था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, सोवियत लोहा और इस्पात उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुआ था।
अधिकांश बड़े उत्पादन केंद्र या तो नष्ट हो गए या क्षतिग्रस्त हो गए। परन्तु सोवियत देश बहुत जल्द ही ठीक हो गया और 1975 तक दुनिया में लोहे और इस्पात का सबसे बड़ा उत्पादक बन गया। इस क्षेत्र के चार महत्वपूर्ण लोहा एवं इस्पात उत्पादक के क्षेत्र निम्नलिखित है।
====यूराल क्षेत्र====
यह यूराल के दोनों किनारों पर स्थित है। इस क्षेत्र के प्रमुख इस्पात केंद्र हैं - मैग्नीटोगोर्स्क, चेल्याबिंक, निज़नीटागिल, सेवरडलोव्स्क, सेरोव, पेर्म, ओर्स्क, आदि हैं। मैगनिटोगोरस रूस का सबसे बड़ा इस्पात-उत्पादक केंद्र है।
====कुज़नेत्स्क या कुज़बास क्षेत्र====
यह अलाई पर्वत के उत्तर में और टॉम्स्क के दक्षिण में स्थित है। यह इस्पात क्षेत्र कोयला पर आधारित है। लौह अयस्क की आपूर्ति यूराल क्षेत्र से होती है। नोवोकुज़नेट्स इस क्षेत्र का प्रमुख इस्पात उत्पादक केंद्र है।
====मॉस्को क्षेत्र====
इस क्षेत्र में लोहे एवं इस्पात के महत्वपूर्ण केंद्र तुला, लिपेत्स्क, चेरेपोवेट्सक और गोर्की हैं।
====अन्य क्षेत्र ====
अन्य क्षेत्रों में विभिन्न भागों को अलग-थलग और विकसित किया जाता है। ये बाइकाल, सेंट पीटर्सबर्ग, लोअर आमेर घाटी और प्रशांत तटीय क्षेत्र हैं।
===यूक्रेन===
यूक्रेन एक स्वतंत्र देश है और विश्व में लौह एवं इस्पात के उत्पादन में 8 वां स्थान है। इस क्षेत्र में सभी कच्चे माल जैसे- लौह अयस्क, कोयला, चूना पत्थर, मैंगनीज आदि इस्पात उत्पादन के लिए उपलब्ध हैं।रेलवे और सस्ते जल परिवहन का एक सघन नेटवर्क लौह एवं इस्पात उद्योग के विकास को सुविधाजनक बनाता है। लोहा एंव इस्पात उद्योग के मुख्य केंद्र क्रिवोएरोग, केर्च, ज़्डानोव, टैगररोग, ज़ापोरोज़े, पिट्सबर्ग, डेन्प्रोपेत्रोव्स्क आदि क्षेत्र हैं।
स्वतंत्र देशों के अन्य उल्लेखनीय इस्पात उत्पादक केंद्र हैं, जैसे- उजबेकिस्तान में तबीसी, ताशकंद और बोगोवत और कजाकिस्तान में तामीर तान आदि।
===जर्मनी===
प्रथम विश्व युद्ध से पहले,जर्मनी दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा लोहा एवं इस्पात उत्पादक था। यह दुनिया में स्टील के सामान का सबसे बड़ा निर्यातक था।जर्मन लोहे और इस्पात उद्योग को 1914 के युद्ध के बाद से अयस्क, कोयला और उत्पादक क्षमता में नुकसान हो गया। उसके बाद से यह उद्योग धीमी हो गई।
हालाँकि, जर्मनी ने कुछ ही वर्षों में अपने उद्योग में सुधार किया, और अपने घटते संसाधनों के बावजूद भी उसने 1939 में इस्पात के 1913 से अधिक उत्पादन किया।जर्मनी के विभाजन का मुख्य कारण लोहे एवं इस्पात उत्पादन के मामले में कम उत्पादन की स्थिति थी।लेकिन 1990 में पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के फिर से एकीकरण के बाद, जर्मनी देश अब दुनिया में अग्रणी इस्पात उत्पादक देशों में से एक है और 27.3 करोड़ टन कच्चा लोहा एवं 41.7 करोड़ टन कच्चा इस्पात के वार्षिक उत्पादन के साथ दुनिया में 5 वें स्थान पर है।जर्मनी में लौह एवं इस्पात उद्योग का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र रनीश-वेस्टफेलिया है, जो जर्मनी में उत्पादित स्टील का 80 प्रतिशत से अधिक और 85 प्रतिशत कच्चा लोहा के उत्पादन में योगदान करता है।अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में सिगेरलैंड, हेसन-नासाउ, उत्तरी और मध्य जर्मनी, सैक्सोनी तथा दक्षिण जर्मनी हैं। इस क्षेत्र का सबसे बड़ा केंद्र एसेन है जो कि रूहर घाटी में स्थित है और यहां विश्व प्रसिद्ध कृतियाँ कुरूप्प भी स्थित हैं।
===दक्षिणी कोरिया===
दक्षिण कोरिया लौह एवं इस्पात उत्पादन में दुनिया का 6 वां अग्रणी देश है। यह चीन और जापान के बाद तीसरा एशियाई देश है जो इस्पात का उच्च-श्रेणी का उत्पादन करता है। इसका वार्षिक उत्पादन 24.8 करोड़ टन कच्चा लोहा और 43.4 करोड़ टन कच्चा इस्पात है।
===ब्राजील===
विश्व में लौह एवं इस्पात उत्पादन में ब्राज़ील 7 वाँ स्थान वाला देश है। इसका वार्षिक उत्पादन 27.7 करोड़ टन कच्चा लोहा और 27.8 करोड़ टन स्टील है।
ब्राजील में स्टील के उत्पादन का विकास अच्छा रहा है। 1973 के बाद से स्टील के उत्पादन में 300 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। <ref name="GHOSHCHATTERJEE2008">{{cite book|author1=AHINDRA GHOSH|author2=AMIT CHATTERJEE|title=IRON MAKING AND STEELMAKING: THEORY AND PRACTICE|url=https://books.google.com/books?id=7_GcmB4i_dsC|date=29 February 2008|publisher=PHI Learning Pvt. Ltd.|isbn=978-81-203-3289-8}}</ref> इस देश के भीतर स्टील की खपत बहुत कम है।इसलिए, ब्राजील अपने इस्पात उत्पादन के थोक को निर्यात करने में सक्षम है।स्टील उद्योग के अधिकांश भाग साओ-पाउलो और कुरूम्बा के आसपास स्थित हैं।ब्राजील में लौह अयस्क भारी मात्रा में उपलब्ध है। इन लौह अयस्कों का सबसे बड़ा क्षेत्र मिनस-गर्रेस के पास स्थित है। एक अन्य बड़ी इस्पात उद्योग सांता कैटरीना में स्थित है। यहां अधिकांश कारखाने जल विद्युत संयंत्रों से ऊर्जा प्राप्त करती हैं।
===भारत===
भारत के पास लौह और इस्पात के उपयोग का एक लंबा इतिहास है। [[File:State_wise_Steel_Production_India,_2019.jpg|right|300px]]हालाँकि, यह 20 वीं शताब्दी पहले दशक के बाद ही शुरू हुआ था जब एक आधुनिक उद्योग के रूप में लोहे और इस्पात का निर्माण इस देश में शुरू हुआ था।1911 में भारत का पहला लौह और इस्पात संयंत्र की स्थापना की गई। जिसका नाम टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड (TISCO) रखा गया जो बिहार के जमशेदपुर में एक निजी फर्म के निजी सहयोग से स्थापना की गई थी।लगभग साढ़े तीन दशक बाद ब्रिटिश भागीदारी के साथ पश्चिमबंगाल के बर्नपुर में एक और उद्योग स्थापित किया गया था, जिसका नाम इंडियन आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड (IISCO) था। पंचवर्षीय योजनाओं (1951) के प्रारंभ में जमशेदपुर, आसनसोल और भद्रावती में तीन इस्पात संयंत्र थे।
संयंत्रों की क्षमता भी बढ़ाई गई थी और दुर्गापुर, राउरकेला, भिलाई, बोकारो, विशाखापत्तनम, सलेम के सार्वजनिक क्षेत्र में छह एकीकृत संयंत्र स्थापित किए गए थे। इनके अलावा बढ़ती आंतरिक मांग को पूरा करने के लिए 140 से अधिक मिनी इस्पात उद्योग भी स्थापित किए गए हैं।
भारत में दुनिया का सबसे बड़ा लौह अयस्क भंडार है और कोयला भी है, इसलिए, लौह और इस्पात उद्योग के आगे बढ़ने की बहुत अच्छी संभावनाएं हैं।
===फ्रासं===
1973 तक, फ्रांस दुनिया में स्टील का 6 वां सबसे बड़ा उत्पादक था लेकिन अब इसकी स्थिति 10 वीं है। फ्रांस पश्चिम यूरोप का सबसे बड़ा लौह अयस्क उत्पादक देश है, लेकिन यहां कोयले की कमी है। फ्रांस में, लोहा और इस्पात उत्पादन के लिए दो क्षेत्र उल्लेखनीय हैं।
# लोरेन,
# समब्र-म्युज़
सार बेसिन में स्टील उद्योग को स्थानीय कोयला भंडार और लोरेन से लौह अयस्क मिलती है।
==संबंधित प्रश्न==
# छोटा नागपुर पठार में और उसके आस-पास के क्षेत्र में इस्पात उद्योग के संकेन्द्रित होने के किन्हीं चार कारकों का वर्णन कीजिए।
# अफ्रीका में अपरिमित प्राकृतिक संसाधन है फिर भी औद्योगिक दृष्टि से यह बहुत पिछड़ा महाद्वीप है। समीक्षा कीजिए।
# भारत में किसी उद्योग की अवस्थिति को प्रभावित करने वाले प्रमुख औद्योगिक कारकों के बारे में बताएं।
# लौह एवं इस्पात उद्योग के उत्पादन में किस देश का योगदान सबसे अधिक है।
# उद्योग को प्रभावित करने वाले कारकों के नाम बताएं।
==सन्दर्भ==
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