विकिस्रोत hiwikisource https://hi.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%A4:%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0 MediaWiki 1.44.0-wmf.4 first-letter मीडिया विशेष वार्ता सदस्य सदस्य वार्ता विकिस्रोत विकिस्रोत वार्ता चित्र चित्र वार्ता मीडियाविकि मीडियाविकि वार्ता साँचा साँचा वार्ता सहायता सहायता वार्ता श्रेणी श्रेणी वार्ता लेखक लेखक वार्ता अनुवाद अनुवाद वार्ता पृष्ठ पृष्ठ वार्ता विषयसूची विषयसूची वार्ता TimedText TimedText talk मॉड्यूल मॉड्यूल वार्ता पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३४९ 250 150025 640480 458503 2024-11-20T07:26:55Z 21GauriGuptaa 5941 Proofread this page 640480 proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="1" user="अमिताभ साव" /></noinclude> {{larger|रामचरित-मानस ।}} २६० {{larger|सुख बिदेह कर बरनि न जाई । जनम दरिद्र मनहुँ निधि पाई ॥ बिगत नास भइ पीय सुखारी । जनु बिधु उदय चकोर-कुमारी ॥२॥}} विदेह का सुख वर्णन नहीं किया जा सकता, वे ऐसे आनन्दित मालूम होते हैं मानों जन्म का दरिद्री धन की गाशि पा गया हो । बाल रहित होक्षर सीताजी प्रसन्न हुई, वे ऐसी जान पड़ती है मानों चन्द्रमा के उदय से चकोर की कन्या खुश हो ॥२॥ जन्म का कमाल धन राशि पा कर खुश होता ही है और चन्द्रोदय से चकोरकुमारी प्रसन होती है । यह दोनों 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। {{larger| जनक कीन्ह कैासिकहि मनोमा । प्रभु प्रसाद धनु भउजेउ रामा ॥ मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाई । अब जोउचित सो कहिय गोसाँई ॥३॥}} राजा जनक ने विश्वामित्रजी को प्रणाम किया और कहा कि आप की कृपा से रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ा। दोनों भाइयों ने मुझे कृतार्थ किया, हे स्वामिन् ! अव जो उचित हो सो कहिए॥॥ {{larger|कह मुनि सुनु नरनाथ प्रवीना । रहा विवाह चाप आधीना ॥ दूटत ही धनु भयेउ बिवाहू । सुर नर नाग विदित सब काहू ॥४॥}} विश्वामित्र मुनि ने कहा-हे चतुर राजन् ! सुनिए, विवाह तो धनुप के अधीन था। धनुष के टूटते ही विवाह हो गया; यह देवता, मनुष्य और नाग लव को विस्यात है|| {{larger| दो-तदपि जाइ तुम्ह करहु अब,जथा वंस व्यवहार । बूझि विप्र कुल-बुद्ध गुरु, बेइ विदित आचार ॥२६॥}} तो भी आप जा कर अव जैसा कुल व्यवहार हो, ब्राह्मण कुल के वृद्ध और गुरु से पूछ कर वेद-विष्यात प्राचार कीजिए ॥२६॥ {{larger|दो-दूत अवधपुर पठवहु जाई । आनहिँ नप दसरथहि बोलाई ॥ मुदित राउ कहि भलेहि कृपाला । पठये दूत बालि तेहि काला ॥१॥}} जा कर अयोध्यापुरी को दूत भेजो, वे राजा दशरथ को युवा लावें। प्रसन्न होकर राजा जनक ने कहा-बहुत अच्छो दयानिधे, उसी समय दूतों को बुला कर भेजा ॥१॥ श्राज्ञा होने के साथ ही दूत अयोध्यापुरी को भेजना कारण कार्य का एक सा होना 'अक्रमातिशयोक्ति अलंकार' है। {{larger|बहुरि महाजन सकल बोलाये। आइ सबन्हि सादर सिर नाये । हाट बार मन्दिर सुर-बासा । नगर सँवारहु चारिहु पासा ॥२॥}} फिर सम्पूर्ण महाजनों (रईसे) को बुलवाया, उन सव ने श्राफरादरसे मस्तक मवाया। राजा ने उन्हें श्राक्षा दी कि बाजार, गली, (सड़क) मकान और देवालय नगर के चारों ओर सब सजवानो||<noinclude></noinclude> jshz1j5y4ckj8pytcjyzbv7l1dueog5 640481 640480 2024-11-20T07:27:17Z 21GauriGuptaa 5941 640481 proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="1" user="अमिताभ साव" /></noinclude> {{larger|रामचरित-मानस ।}} २६० {{larger|सुख बिदेह कर बरनि न जाई । जनम दरिद्र मनहुँ निधि पाई ॥ बिगत नास भइ पीय सुखारी । जनु बिधु उदय चकोर-कुमारी ॥२॥}} विदेह का सुख वर्णन नहीं किया जा सकता, वे ऐसे आनन्दित मालूम होते हैं मानों जन्म का दरिद्री धन की गाशि पा गया हो । बाल रहित होक्षर सीताजी प्रसन्न हुई, वे ऐसी जान पड़ती है मानों चन्द्रमा के उदय से चकोर की कन्या खुश हो ॥२॥ जन्म का कमाल धन राशि पा कर खुश होता ही है और चन्द्रोदय से चकोरकुमारी प्रसन होती है । यह दोनों 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। {{larger| जनक कीन्ह कैासिकहि मनोमा । प्रभु प्रसाद धनु भउजेउ रामा ॥ मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाई । अब जोउचित सो कहिय गोसाँई ॥३॥}} राजा जनक ने विश्वामित्रजी को प्रणाम किया और कहा कि आप की कृपा से रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ा। दोनों भाइयों ने मुझे कृतार्थ किया, हे स्वामिन् ! 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