कृष्णावतार
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राजा परीक्षित ने नम्रतापूर्वक कहा, "हे ऋषिश्रेष्ठ! भगवान श्री कृष्णचन्द्र के भ्राता बलराम जी रोहिणी तथा देवकी दो-दो माताओं के पुत्र क्यों कहलाते हैं? कृपा करके मेरी इस उत्सुकता को शान्त कीजिये।"
श्री शुकदेव मुनि उनके इन वचनों को सुन कर प्रसन्न हुये और बोले, "मथुरापुरी यदुवंशी राजाओं की राजधानी थी तथा वहाँ राजा शूरसेन राज्य करते थे। शूरसेन के पुत्र वसुदेव हुये। वसुदेव का विवाह भोजवंशी राजा उग्रसेन के भाई देवक की कन्या देवकी से हुआ। राजा देवक ने बड़ी धूमधाम के साथ देवकी को विदा किया। वसुदेव और देवकी के रथ को देवकी का चचेरा भाई, उग्रसेन का पुत्र, कंस हाँकते हुये जा रहा था कि मार्ग में आकाशवाणी हुई - रे मूर्ख कंस! तू जिस अपनी बहन देवकी को पहुँचाने जा रहा है, उसी के आठवें गर्भ से तेरा काल उत्पन्न होगा। कंस अत्यन्त दुष्ट तथा राक्षस था। वह अपने पिता उग्रसेन को कैद करके राजा बना था। आकाशवाणी सुनकर उसने तत्काल अपनी बहन देवकी के केश पकड़ कर रथ से नीचे गिरा दिया और तलवार खींचकर उसे मारने के लिये उद्यत हो गया।
"इस वीभत्स दृष्य को देख कर वसुदेव ने कंस से कहा कि हे राजकुमार! आप भोजवंश के वीर शिरोमणि हैं। वीर पुरुष के लिये स्त्री का वध उचित नहीं है। आकाशवाणी ने इसके आठवें गर्भ से उत्पन्न बालक द्वारा ही तुम्हारी मृत्यु बताई है। मैं इसके जितने बालक उत्पन्न होंगे वे सब तुम्हें लाकर दे दिया करूँगा। आप उनका वध कर सकते हैं। वसुदेव की बात को सुन कर कंस ने देवकी को मारने का विचार छोड़ दिया।
"जब देवकी के गर्भ से एक बालक का जन्म हुआ तो उसे अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वसुदेव ने उस बालक को कंस को दे दिया। कंस ने वसुदेव की सत्यता को देख कर उस बालक को उन्हें वापस कर दिया और बोला कि आकाशवाणी ने तो आठवें पुत्र को मेरा काल बताया हैं, फिर इसे मैं क्यों मारूँ। वसुदेव उस बालक को वापस अपने घर ले आये। वसुदेव के जाने के बाद देवर्षि नारद जी कंस के पास आये। उन्होंने यह सोच कर कि यदि यह दया करेगा तो इसकी आयु और बढ़ जायेगी, कंस को बहका दिया कि न जाने किस गर्भ में उसका काल हो। उन्होंने कंस से यह भी कह दिया कि देवकी अब यदुवंशी हो गई है और हो सकता है कि यदुवंश में उत्पन्न होने वाला कोई भी बालक उसका काल हो। नारद जी के बहकावे में आकर कंस ने तुरन्त ही वसुदेव तथा देवकी को हथकड़ी बेड़ी पहना कर कारागार में डलवा दिया और उनके पहले बालक का वध कर दिया। कंस ने यदुवंशियों पर अत्याचार करना आरम्भ कर दिया। वह यदुवंशियों के नन्हे बालकों को इस भय से मरवा डालता कि कहीं इनमें ही मेरे काल विष्णु ने अवतार न ले लिया हो। कंस के इन अत्याचारों से अधिकांश यदुवंशी मथुरामण्डल छोड़ कर चले गये।
"हे परीक्षित! मथुरा का राजा कंस स्वयं महाबली था और दूसरे मगध के राजा जरासंघ की उसे सहायता प्राप्त थी। तीसरे प्रलम्बा, बकासुर, चाणूड़, तृणावर्त अघासुर, मुष्टिक, अरिष्टासुर, द्विविद, पूतना, केशी, धेनुक, वाणासुर, भौमासुर आदि सभी दैत्य तथा राक्षस उसकी सहायता के लिये हर समय तत्पर रहते थे। इन सभी की सहायता से वह यदुवंशियों को मारने लगा। यदुवंशी कंस के डर से भाग कर कुरु, पाँचाल, [कैकेय], शाल्व, विधर्व, निषध, विदेह तथा कौशल आदि देशों में छिप गये। जो लोग उसके राज्य में रह गये वे सभी इच्छानुसार उसकी सेवा करने लगे। श्री शुकदेव जी बोले, "हे राजन्! जब कंस ने देवकी के छः बालकों मार डाला तब सातवें गर्भ में भगवान शेष जी देवकी के गर्भ में पधारे। इधर भगवान विष्णु ने अपनी योगमाया से कहा कि हे कल्याणी! तुम ब्रज में जाओ। वहाँ पर देवकी के गर्भ में मेरे अंशावतार शेष जी पहुँच चुके हैं। तुम उन्हें नन्द बाबा की पहली पत्नी रोहिणी के गर्भ में रख दो और स्वयं उनकी दूसरी पत्नी यशोदा के गर्भ में स्थित हो जाओ। तुम वहाँ दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्या, माया, नारायणी, ईशायिनी, शारदा, अम्बिका आदि अनेक नामों से पूजी जाओगी। मैं भी अपने समस्त ज्ञान, बल तथा सम्पूर्ण कलाओं के साथ देवकी के गर्भ में आ रहा हूँ।
हे परीक्षित! इस तरह शेष भगवान के अवतार बलराम जी पहले देवकी के गर्भ में आये और फिर उनको योगमाया ने देवकी के गर्भ से निकाल कर रोहिणी के गर्भ में रख दिया। इसीलिये बलराम जी की दो माताएँ हुईं। इसके पश्चात् भगवान विष्णु स्वयं देवकी के गर्भ में आ पहुँचे।
[बदलें] जन्म
भादों माह की अष्टमी तिथि थी। रोहिणी नक्षत्र था। अर्द्धरात्रि का समय था। बादल गरज रहे थे और घनघोर वर्षा हो रही थी। उसी काल में देवकी के गर्भ से भगवान प्रकट हुये। उनकी चार भुजाएँ थीं जिनमें वे शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हुये थे। वक्षस्थल पर श्री वत्स का चह्न था। कण्ठ में कौस्तुभ मणि जगमगा रही थी। उनका सुन्दर श्याम शरीर था जिस पर वे पीताम्बर धारण किये हुये थे। कमर में कर्धनी, भुजाओं में बाजूबन्द तथा कलाइयों में कंकण शोभायमान थे। अंग प्रत्यंग से अपूर्व छटा छलक रही थी जिसके प्रकाश से सम्पूर्ण बन्दीगृह जगमगा उठा। वसुदेव और देवकी विस्मय और हर्ष से ओत-प्रोत होने लगे। यह जान कर कि स्वयं भगवान उनके पुत्र के रूप में पधारे हैं उनके आनन्द की सीमा नहीं रही। बुद्धि को स्थिर कर दोनों ने भगवान को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे।
स्तुति करके देवकी बोलीं कि हे प्रभु! आपने अपने दर्शन देकर हमें कृतार्थ कर दिया। अब मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि आप अपने अलौकिक रूप को त्याग कर सामान्य बालक का रूप धारण कर लीजिये। भगवान ने देवकी से कहा, "हे देवि! अपने पूर्व जन्म में आप दोनों ने घोर तपस्या की थी और ब्रह्मा जी से वरदान में मुझे पुत्र रूप में माँगा था। अतः ब्रह्मा जी के वरदान को सत्य सिद्ध करने के लिये मैंने आप लोगों के पुत्र के रूप में अवतार लिया है।" फिर वे वसुदेव से बोले, "हे तात! मैं अब बालक रूप हो जाता हूँ। आप मुझे गोकुल में नन्द बाबा के यहाँ पहुँचा दीजिये। वहाँ पर मेरी योगमाया ने कन्या के रूप में यशोदा के गर्भ से जन्म लिया है। आप उसे यहाँ ले आइये। इतना कहकर उन्होंने बालक रूप धारण कर लिया।
भगवान की माया से वसुदेव की हथकड़ी-बेड़ी खुल गईं, पहरेदारों को गहन निद्रा व्याप्त गई, और कपाट भी खुल गये। वसुदेव बालक को लेकर गोकुल की ओर चले। बादल धीरे-धीरे गरज रहे थे। जल की फुहारें पड़ रहीं थीं। शेष जी अपना फन फैला कर छतरी बने हुये बालक को ढँके हुये थे। वसुदेव जी यमुना पार करने के लिये निर्भय होकर जल में घुस पड़े। भगवान के चरण को स्पर्श करने के लिये यमुना जी का जल चढ़ने लग गया। ज्यों-ज्यों वसुदेव बालक को ऊपर उठाते, त्यों-त्यों जल और भी ऊपर चढ़ता जाता। इस पर वसुदेव के कष्ट को जान कर भगवान ने अपने चरण बढ़ा कर यमुना जी को उसे छू लेने दिया और जलस्तर नीचे आ गया।
[बदलें] यशोदा
यशोदा जी अचेत होकर अपनी शैया पर सो रहीं थीं उन्हें नवजात कन्या के जन्म का कुछ भी पता नहीं था। वसुदेव ने अपने पुत्र को यशोदा की शैया पर सुला दिया और उनकी कन्या को अपने साथ बन्दीगृह ले आये। कन्या को देवकी की शैया पर सुलाते ही हथकड़ी-बेड़ी अपने आप लग गये, कपाट बन्द हो गये और पहरेदारों को चेत आ गया। शिशु के रोने की आवाज सुन कर पहरेदारों ने राजा कंस को देवकी के गर्भ से कन्या होने का समाचार दिया। कंस उसी क्षण अति व्याकुल होकर हाथ में नंगी तलवार लेकर बन्दीगृह की ओर दौड़ा। बन्दीगृह पहुँचते ही उसने तत्काल उस कन्या को देवकी के हाथ से छीन लिया। देवकी अति कातर होकर कंस के सामने गिड़गिड़ाने लगी, "हे भाई! तुमने मेरे छः बालकों का वध कर दिया है। इस बार तो कन्या का जन्म हुआ है। तुम्हारे काल की आकाशवाणी तो पुत्र के द्वारा होने की हुई थी। इस कन्या को मत मारो।"
देवकी के रोने गिड़गिड़ाने पर भी दुष्ट कंस का हृदय नहीं पिघला और उसने कन्या को भूमि पर पटक डालने के लिये ज्योंही ऊपर उछाला कि कन्या उसके हाथ से छूट कर आकाश में उड़ गई। वह आकाश में स्थित होकर अष्ट भुजा धारण कर के आयुधों से युक्त हो गई और बोली, "रे दुष्ट कंस! तुझे मारने वाला तेरा काल कहीं और उत्पन्न हो चुका है। तू व्यर्थ निर्दोष बालकों की हत्या न कर।" इतना कह कर योगमाया अन्तर्ध्यान हो गई। योगमाया की बातों को सुन कर कंस को अति आश्चर्य हुआ और उसने देवकी तथा वसुदेव को कारागार से मुक्त कर दिया।
तत्पश्चात् कंस ने अपने मन्त्रियों को बुला कर योगमाया द्वारा कही गयी बातों पर मन्त्रणा करने लगा। कंस के मूर्ख मन्त्रियों ने कहा, "हे राजन्! देवताओं ने यह धोखा दिया है इसलिये देवताओं का ही नाश करना चाहिये। ब्राह्मणों के यज्ञादि को बन्द करवा देना चाहिये। इन्द्र को तो आप कई बार परास्त कर ही चुके हैं इस बार आपके डर से छिपे हुये विष्णु को भी ढूंढ कर उससे युद्ध करना चाहिये और पिछले दस दिनों के भीतर उत्पन्न हुये सभी बालकों को भी मार डालना चाहिये।"
इधर गोकुल में नन्द बाबा ने पुत्र का जन्मोत्सव बड़े धूम-धाम से मनाया। ब्राह्मणों और याचकों को यथोचित गौओं तथा स्वर्ण, रत्न, धनादि का दान किया। कर्मकाण्डी ब्राह्मणों को बुला कर बालक का जाति कर्म संस्कार करवाया। पितरों और देवताओं की अनेक भाँति से पूजा-अर्चना की। पूरे गोकुल में उत्सव मनाया गया।
इधर कंस ढूंढ-ढूंढ कर नवजात शिशुओं का वध करवाने लगा। उसने पूतना नाम की एक क्रूर राक्षसी को ब्रज में भेजा। पूतना ने राक्षसी वेष तज कर अति मनोहर नारी का रूप धारण किया और आकाश मार्ग से गोकुल पहुँच गई। गोकुल में पहुँच कर वह सीधे नन्द बाबा के महल में गई और शिशु के रूप में सोते हुये श्री कृष्ण को गोद में उठा कर अपना दूध पिलाने लगी। उसकी मनोहरता और सुन्दरता ने यशोदा और रोहिणी को भी मोहित कर लिया इसलिये उन्होंने बालक को उठाने और दूध पिलाने से नहीं रोका। पूतना के स्तनों में हलाहल विष लगा हुआ था। अन्तर्यामी श्री कृष्ण सब जान गये और वे क्रोध करके अपने दोनों हाथों से उसका कुच थाम कर उसके प्राण सहित दुग्धपान करने लगे। उनके दुग्धपान से पूतना के मर्म स्थलों में अति पीड़ा होने लगी और उसके प्राण निकलने लगे। वह चीख-चीख कर कहने लगी, "अरे छोड़ दे! छोड़ दे! बस कर! बस कर!" वह बार-बार अपने हाथ पैर पटकने लगी और उसकी आँखें फट गईं। उसका सारा शरीर पसीने में लथपथ होकर व्याकुल हो गया। वह बड़े भयंकर स्वर में चिल्लाने लगी। उसकी भयंकर गर्जना से पृथ्वी, आकाश तथा अन्तरिक्ष गूँज उठे। बहुत से लोग बज्रपात समझ कर पृथ्वी पर गिर पड़े। पूतना अपने राक्षसी स्वरूप को प्रकट कर धड़ाम से भूमि पर बज्र के समान गिरी, उसका सिर फट गया और उसके प्राण निकल गये।
जब यशोदा, रोहिणी और गोपियों ने उसके गिरने की भयंकर आवाज को सुना तब वे दौड़ी-दौड़ी उसके पास गईं। उन्होंने देखा कि बालक कृष्ण पूतना की छाती पर लेटा हुआ स्तनपान कर रहा है तथा एक भयंकर राक्षसी मरी हुई पड़ी है। उन्होंने बालक को तत्काल उठा लिया और पुचकार कर छाती से लगा लिया। वे कहने लगीं, "भगवान चक्रधर ने तेरी रक्षा की। भगवान गदाधर तेरी आगे भी रक्षा करें।"
इसके पश्चात् गोप ग्वालों ने पूतना के अंगों को काट-काट कर गोकुल से बाहर ला कर लकड़ियों में रख कर जला दिया।
[बदलें] स्रोत
सुखसागर के सौजन्य से