सामवेद:आग्नेय काण्डम्:प्रथम प्रपाठकःद्वितीय दशति

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[edit] दशति

नमस्ते अग्न ओजसे गृणन्ति देव कृष्टयः। अमैरमित्रमर्दय।१
दूतं वो विश्ववेदसँ हव्यवाहममर्त्यम्। यहिष्ठमृञ्जसे गिरा।२
उप त्वा जामयो गिरो देदिशतीर्हविष्कृतः। वायोरनीके अस्थिरन्।३
उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्। नमो भरन्त एमसि।४
जराबोध तद्वितिड्‍ढि विशेविशे यज्ञियाय। स्तोमँ रुद्राय द्दशीकम्।५
प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे। मरुद्‍भिरग्न आ गहि।६
अश्वं न त्वा वार्वन्तं वन्दध्या अग्निं नमोभिः। सम्राजन्तमध्वराणाम्।७
और्वभृगुवच्छुचिमप्नवानवदा हुवे। अग्निँ समुद्रवाससम्।८
अग्निमिन्धानो मनसा धियँ सचेत मर्त्यः। अग्निमिन्धे विवस्वभिः।९
आदित् प्रत्नस्त्य रेतसो ज्योतिः पश्यन्ति वासरम्। परो यदिध्यते दिवि।१०


[edit] भावार्थ

इस दशति में अग्नि की अर्चना जारी रखते हुए अग्नि के गुणगान में यह कहा गया है कि अग्नि यज्ञ के साधन के रूप में हविवाहक और देवताओं के दूत के रूप में है। अग्नि से यह प्रार्थना की जाती है कि अग्नि यज्ञ के संपन्न होने के निये मंडप मे प्रकट हो।