जैनेंद्र कुमार

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जन्म सन 1905, स्थान कौड़ियागंज (जिला अलीगढ़)। इनकी मुख्य देन उपन्यास तथा कहानी है। एक साहित्य विचारक के रूप में भी इनका स्थान मान्य है। इनके जन्म के दो वर्ष पश्चात इनके पिता की मृत्यु हो गई। इनकी माता एवं मामा ने ही इनका पालन-पोषण किया। इनके मामा ने हस्तिनापुर में एक गुरुकुल की स्थापना की थी। वहीं जैनेंद्र की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा हुई। उनका नामकरण भी इसी संस्था में हुआ। उनका घर का नाम आनंदी लाल था। सन 1912 में उन्होंने गुरुकुल छोड़ दिया। प्राइवेट रूप से मैट्रीक परीक्षा में बैठने की तैयारी के लिए वह बिजनौर आ गए। 1919 में उन्होंने यह परीक्षा बिजनौर से न देकर पंजाब से उत्तीर्ण की। जैनेंद्र की उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हुई। 1921 में उन्होंने विश्वविद्यालय की पढ़ाई छोड़ दी और कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के उद्देश्य से दिल्ली आ गए। कुछ समय के लिए ये लाला लाजपतराय के 'तिलक स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स' में भी रहे, परंतु अंत में उसे भी छोड़ दिया।

सन 1921 से 23 के बीच जैनेंद्र ने अपनी माता की सहायता से व्यापार किया, जिसमें इन्हें सफलता भी मिली। परंतु सन 23 में वे नागपुर चले गए और वहाँ राजनीतिक पत्रों में संवाददाता के रूप में कार्य करने लगे। उसी वर्ष इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तीन माह के बाद छूट गए। दिल्ली लौटने पर इन्होंने व्यापार से अपने को अलग कर लिया। जीविका की खोज में ये कलकत्ते भी गए, परंतु वहाँ से भी इन्हें निराश होकर लौटना पड़ा। इसके बाद इन्होंने लेखन कार्य आरंभ किया।

जैनेंद्र की सर्वप्रथम औपन्यासिक कृति 'परख' का प्रकाशन सन 1929 में हुआ। सत्यधन, कट्टो, बिहारी और गरिमा नामक पात्र-पात्रियों के चरित्र पर आधारित यह मनोवैज्ञानिक कथा अप्रत्यक्ष रूप से विधवा विवाह की समस्या से संबंध रखती है, जो भारतेंदुयुगीन औपन्यासिक प्रवृत्ति है। जैनेंद्र के आगामी उपन्यासों की अपेक्षा 'परख' में चरित्र-चित्रण अशक्त प्रतीत होता है। मुख्यतः इसी कारण से 'परख' को वह महत्व नहीं प्राप्त हो सका, जो जैनेंद्र के अन्य उपन्यासों विशेष रुप से 'सुनीता'(1935) तथा 'त्यागपत्र' (1937) के प्राप्त हुआ। इसका एक कारण इस उपन्यास की अविश्वसनीय कथा भी है। इसके प्रधान पात्र-पात्रियाँ अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व रखते हुए भी अधिकांशतः नाटकीय व्यवहार करते हैं। आदर्शवादी कथा-तत्व यत्र-तत्र उभरे हुए हैं, जिनमें आत्मबलिदान की भावना को प्रमुखता मिली है।

सन 1935 में जैनेंद्र के दूसरे उपन्यास 'सुनीता' का प्रकाशन हुआ। आरंभ में इसका दो तिहाई अंश 'चित्रपट' में प्रकाशित हुआ था। गुजराती की एक पत्रिका में यह धारावाहिक रूप से अनूदित भी हुआ। 'सुनीता' और जैनेंद्र की पूर्वप्रकाशित औपन्यासिक कृति 'परख' के कथानक में दृष्टिकोणगत बहुत कुछ समानता है। इस उपन्यास की कमियाँ भी स्पष्ट है। इसके पात्र-पात्रियों के व्यवहार और प्रतिक्रियाएँ निरुद्देश्य एवं अप्रत्याशित लगती हैं। अप्रत्याशित व्यवहार प्रदर्शन की भावना के कारण ही उपन्यास में क्षीण स्थल आए हैं। उपन्यासकार का पहेली बुझाने का आग्रह कृति में हलकापन ला देता है, परंतु कहीं-कहीं उपन्यास के चरित्र अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करके अतिशय उच्चता का परिचय देते हैं। जैनेंद्र का अटपटी कथा शैली इस उपन्यास में सहजता, स्वाभाविकता से युक्त प्रतीत होती है। इस दृष्टि से 'सुनीता' को जैनेंद्र की सर्वश्रेष्ठ औपन्यासिक कृति कहा जा सकता है। उपन्यास के प्रभावशाली वातावरण और सप्राण चरित्रों के बीच पात्र चकित-सा रह जाता है। जैनेंद्र की सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि और सशक्त वातावरण का चित्रण पाठक पर अमिट प्रभाव डालता है। 'सुनीता' के कथा-चक्र की सबसे भारी घटना निर्जन वन में अर्धरात्रि के समय उपन्यास की प्रधान पात्री सुनीता का हरि प्रसन्न के सामने निर्वसना हो जाना है। परंतु 'सुनीता' के चरित्रों की मानसिक अस्थिरता को देखते हुए इस घटना को बहुत अधिक महत्व नहीं देना चाहिए। इसके आधार पर जैनेंद्र पर नग्नवादिता के आरोप अनौचित्यपूर्ण हैं।

जैनेंद्र की तीसरी औपन्यासिक कृति 'त्यागपत्र' है। इसका प्रकाशन सन 1937 में हुआ। इसका अनुवाद अनेक प्रादेशिक तथा विदेशी भाषाओं में हो चुका है। हिंदी के भी सर्वश्रेष्ठ लघु उपन्यासों में मृणाल नामक भाग्यहीना युवती के जीवन पर आधारित यह मार्मिक कथा अत्यंत प्रभावशाली बन सकी है। उसका भतीजा प्रमोद उसकी पीड़ा को समझता है। वह अपने सर्वस्व की बाज़ी लगाकर भी अपनी बुआ के दुर्भाग्य पर विजय प्राप्त करना चाहता है, परंतु मृणाल सदैव ही उसकी कृपा को अस्वीकृत कर देती है। वह स्वयं कभी इसके लिए ज़ोर नहीं दे पाता, क्योंकि वह दुविधा में पड़ा रहता है। उसके ह्रदय के किसी कोने में दबी स्वार्थवृत्ति भी उसे पीछे खींचती है। जीवन भर वह अपने आपको मृणाल की ओर से भुलावे में रखने में सफल होता है, परंतु मृणाल की अंतिम अवस्था उसे आंदोलित कर देती हैं और वह अपने पद जजी से त्यागपत्र देकर प्रायश्चित्त करता है। मृणाल की सूक्ष्म चारित्रिक प्रतिक्रियाओं, विवश इच्छाओं, दमित स्वप्नों तथा नुरुद्वेग विकारों की यह मनोवैज्ञानिक कथा अत्यंत मार्मिक बन सकी है। प्रथम पुरुष के रूप में कहीं गई यह रचना पाठक

की मनोभावनाओं और संवेदनाओं को आंदोलित करने में समर्थ है। आकर्षक और उपयुक्त शिल्प रूप में ढाली गई यह, कृति जैनेंद्र की रचनाओं में प्रमुख स्थान रखती है।

सन 1939 में जैनेंद्र के चौथे उपन्यास 'कल्याणी' का प्रकाशन हुआ। यह उपन्यास भी आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया है। सामान्यतः इस शैली में जो उपन्यास लिखे जाते हैं, उनमें कथा के किसी महत्वपूर्ण पात्र की ओर से ही उसका संपूर्ण विवरण प्रस्तुत किया जाता है परंतु इस उपन्यास की विशेषता यह है कि कथा का प्रस्तुतकर्ता उपन्यास का गौण पात्र है। उपन्यास की प्रधान पात्री श्रीमती असरानी हैं, जिनके नाम पर ही उपन्यास का नामकरण भी हुआ है। प्रस्तुतकर्ता ने अपने कुछ परिचितों की जीवनकथा के रूप में यह कहानी सामने रखी है। चूँकि वह स्वयं कथा में प्रधानता नहीं रखता, इसलिए उसके प्रति अपना दृष्टिकोण भी अधिकांशतः तटस्थ रखने का प्रयत्न करता है। इसी कारण कथानक के विकास-चक्र में कहीं-कहीं कुछ ऐसे अंश आ गए हैं, जो उसके प्रवाह की गति भंग कर देते हैं। प्रासंगिक रूप से जो दार्शनिक विचार इसमें समावेशित किए गए हैं, वे भी चिंतनपूर्ण नहीं है।

जैनेंद्र का पाँचवा उपन्यास 'सुखदा' (1953ई.) है, जो प्रारंभ में धारावाहिक रूप से 'धर्मयुग' में प्रकाशित हुआ था। इसका कथानक घटनाओं के वैविध्य बोझ से आक्रांत है। जैसा कि इस उपन्यास के शीर्षक से स्पष्ट है इसकी प्रधान पात्री सुखदा है। उसका जीवन उसके लिए भार बन चुका है। वह एक धनी घराने की कन्या और विवाहिता है। वैचारिक असमानताओं के कारण उसके संबंध अपने पति से संतोषप्रद नहीं हैं। उपन्यास की यह परिस्थिति तो स्पष्ट है, परंतु इसको आधार बनाकर कथा का जो ताना-बाना बुना गया है, वह पाठक को विचित्र लगता है। कथा का उद्देश्य अंत तक अप्रकट ही रहता है। सुखदा के लाल की ओर आकर्षित होने पर भी कथानक का तनाव नहीं खत्म होता। अनेक स्वभावविरोधी प्रतिक्रियाओं तथा नाटकीय मोड़ों के बाद सुखदा पति को त्यागकर अस्पताल में भरती हो जाती है। अनेक अनावश्यक, अप्रासंगिक विवरणों तथा चमत्कारिक तत्वों से कथा अशक्त हो गई है।

जैनेंद्र की छठीं औपन्यासिक कृति 'विवर्त' का प्रकाशन सन 1953 में हुआ। प्रारंभ में यह उपन्यास 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के कथानक का केंद्र जितेन का चरित्र है। उसकी सामान्य पारिवारिक स्थिति से कथा का व्यावहारिक आरंभ होता है। उसकी असाधारण प्रसिद्धि आदि बताकर लेखक कथा-विकास का भावी मार्ग खोलता है। भुवनमोहिनी के कथानक में प्रवेश से उसमें गति आती है परंतु जब भुवनमोहिनी जितेन से विवाह न करके नरेशचंद्र की पत्नी बन जाती है तब कथा की समस्या का अंत हो जाता है। उसका असफल प्रेम उसे क्रांतिकारी दल में सम्मिलित हो जाने की प्रेरणा देता है। चार वर्ष के बाद जितेन का आना, शरण पाना, भुवनमोहिनी के गहने चुरा कर भागना, उसके दलवालों का भुवनमोहिनी को पकड़ ले जाना, जितेन का पुलिस को समर्पण आदि नाटकीयतापूर्ण घटनाएँ क्रमशः घटित होने लगती हैं। उसका अंत भी इन्हीं के जाल में बँधकर आकस्मिक रूप से होता है और पाठक के ह्रदय पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाता।

जैनेंद्र का सातवाँ उपन्यास 'व्यतीत' है, जो सन 1953 में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास का नायक कवि जयंत है। वह अपने जीवन की प्रौढ़ावस्था में पहुँचकर अपने आपको टूटा-सा अनुभव करता है। अनिता उसके प्रति प्रेम-भाव रखती है परंतु उसका विवाह पुरी से हो गया है। वह पचहत्तर रुपये की नौकरी कर लेता है। इसी बीच पिता की मृत्यु हो जाने का कारण उसे ढाई हज़ार रुपया मिलता है। वह रुपया भी अपनी बड़ी बहिन को दे देता है। जयंत के मालिक को पता लगता है कि उसका परिचय पुरी से है। वह इससे लाभ के उद्देश्य से अपनी पुत्री को जयंत के संपर्क में लाता है। वह जयंत के साहचर्य की कामना करने लगती है। कुमार चाहता है कि चंद्री का विवाह जयंत से हो जाए। जयंत इसमें असमर्थता प्रकट करता है और पुनः अनिता के पास लौट जाता है। वह निश्चय करता है कि वह युद्ध में जाकर प्राण दे देगा। बीच में कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उपजती हैं कि वह चंद्री से विवाह कर लेता है। इसके आगे की कथा उलझी हुई है। जयंत, अनिता, चंद्री, पुरी तथा कपिला आदि पात्र-पात्रियाँ कठपुतलियों की भाँति व्यवहार करते हैं और कथानक की गति रुद्ध हो जाती है। ऐसी ही परिस्थिति में 'व्यतीत' की कथा समाप्त हो जाती है।

जैनेंद्र की नवीनतम औपन्यासिक कृति 'जयवर्द्धन' है। इसका प्रकाशन सन 1956 में हुआ। 'जयवर्द्धन' की कथा को एक अमेरिकन पत्रकार विलवर दस्टन की लिखी गई डायरी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। कथात्मकता एवं विचारात्मकता की दृष्टि से यह उनके पूर्व उपन्यासों से पर्याप्त भिन्नता रखता है। इस कथा का नायक स्वयं 'जयवर्द्धन' ही है। उसके अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण चरित्रों में आचार्य स्वामी चिदानंद, इंद्रमोहन, लिजा, इला तथा नाथ आदि हैं। कथा प्रारंभ से ही प्रायः दो सूत्रों में विभक्त होकर विकसित हुई है। यों दोनों सूत्र कथानायक जयवर्द्धन के वैयक्तिक तथा राजनीतिक जीवन को आधार बनाकर गतिशील रहते हैं। यह उपन्यास पात्रों के तर्क सूत्रों, विचार तत्वों, सामाजिक आदर्शों एवं राजनीतिक दर्शन से बोझिल हो गया है। ऐसा भासित होता है कि इस कृति में जो विषय प्रस्तुत किए गए हैं, उनके लिए उपन्यास उपयुक्त माध्यम नहीं है।

प्रेमचंदोत्तर उपन्यासकारों में जैनेंद्रकुमार का विशिष्ट स्थान है। वह हिंदी उपन्यास के इतिहास में मनोविश्लेषणात्मक परंपरा के प्रवर्तक के रूप में मान्य हैं। जैनेंद्र अपने पात्रों की सामान्यगति में सूक्ष्म संकतों की निहिति की खोज करके उन्हें बड़े कौशल से प्रस्तुत करते हैं। उनके पात्रों की चारित्रिक विशेषताएँ इसी कारण से संयुक्त होकर उभरती हैं। जैनेंद्र के उपन्यासों में घटनाओं की संघटनात्मकता पर बहुत कम बल दिया गया मिलता है। चरित्रों की प्रतिक्रियात्मक संभावनाओं के निर्देशक सूत्र ही मनोविज्ञान और दर्शन का आश्रय लेकर विकास को प्राप्त होते हैं।

जैनेंद्र के प्रायः सभी उपन्यासों में दार्शनिक और आध्यात्मिक तत्वों के समावेश से दूरूहता आई है परंतु ये सारे तत्व जहाँ-जहाँ भी उपन्यासों में समाविष्ट हुए हैं, वहाँ वे पात्रों के अंतर का सृजन प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि जैनेंद्र के पात्र बाह्य वातावरण और परिस्थितियों से अप्रभावित लगते हैं और अपनी अंतर्मुखी गतियों से संचालित। उनकी प्रतिक्रियाएँ और व्यवहार भी प्रायः इन्हीं गतियों के अनुरूप होते हैं। इसी का एक परिणाम यह भी हुआ है कि जैनेंद्र के उपन्यासों में चरित्रों की भरमार नहीं दिखाई देती। पात्रों की अल्पसंख्या के कारण भी जैनेंद्र के उपन्यासों में वैयक्तिक तत्वों की प्रधानता रही है।

क्रांतिकारिता तथा आतंकवादिता के तत्व भी जैनेंद्र के उपन्यासों के महत्वपूर्ण आधार है। उनके सभी उपन्यासों में प्रमुख पुरुष पात्र सशक्त क्रांति में आस्था रखते हैं। बाह्य स्वभाव, रुचि और व्यवहार में एक प्रकार की कोमलता और भीरुता की भावना लिए होकर भी ये अपने अंतर में महान विध्वंसक होते हैं। उनका यह विध्वंसकारी व्यक्तित्व नारी की प्रेमविषयक अस्वीकृतियों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप निर्मित होता है। इसी कारण जब वे किसी नारी का थोड़ा भी आश्रय, सहानुभूति या प्रेम पाते हैं, तब टूटकर गिर पड़ते हैं और तभी उनका बाह्य स्वभाव कोमल बन जाता है।

जैनेंद्र के नारी पात्र प्रायः उपन्यास में प्रधानता लिए हुए होते हैं। उपन्यासकार ने अपने नारी पात्रों के चरित्र-चित्रण में सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है। स्त्री के विविध रूपों, उसकी क्षमताओं और प्रतिक्रियाओं का विश्वसनीय अंकन जैनेंद्र कर सके हैं। 'सुनीता', 'त्यागपत्र' तथा 'सुखदा' आदि उपन्यासों में ऐसे अनेक अवसर आए हैं, जब उनके नारी चरित्र भीषण मानसिक संघर्ष की स्थिति से गुज़रे हैं। नारी और पुरुष की अपूर्णता तथा अंतर्निर्भरता की भावना इस संघर्ष का मूल आधार है। वह अपने प्रति पुरुष के आकर्षण को समझती है, समर्पण के लिए प्रस्तुत रहती है और पूरक भावना की इस क्षमता से आल्हादित होती है, परंतु कभी-कभी जब वह पुरुष में इस आकर्षण मोह का अभाव देखती है, तब क्षुब्ध होती है, व्यथित होती है। इसी प्रकार से जब पुरुष से कठोरता की अपेक्षा के समय विनम्रता पाती है, तब यह भी उसे असह्य हो जाता है।

एक कहानीकार के रूप में भी जैनेंद्र की उपलब्धियाँ महती हैं। उनकी विविध कहानियाँ- 'फाँसी' (1929), 'वातायन' (1930), 'नीलम देश की राजकन्या' (1933), 'एक रात' (1934), 'दो चिड़ियाँ' (1935), 'पाजेब' (1942) तथा 'जयसंधि' (1949) शीर्षक संग्रहों में प्रकाशित हो चुकी हैं। जैनेंद्र की लिखी हुई समस्त जैनेंद्र की कहानियाँ के नाम से सात भागों में छपी हैं। इनमें से पहले भाग में राष्ट्रीय और क्रांतिकारी, दूसरे में बाल मनोविज्ञान और वात्सल्य की कहानीयाँ, तीसरे में दार्शनिक और प्रतीकात्मक, चौथे में प्रेम और विवाह-संबंधी कहानियाँ, पाँचवे में प्रेम के विविध रूपों की कहानियाँ, छठे में सामाजिक कहानियाँ तथा सातवें में अन्य कहानियाँ हैं। सामान्य रूप से जैनेंद्र की कहानियों में भी प्रायः वे ही तत्व विद्यमान हैं, जो उनके उपन्यासों में।

'प्रस्तुत प्रश्न' (1936), 'जड़की बात' (1945), 'पूर्वोदय' (1951), 'साहित्य का श्रेय और प्रेय' (1953), 'मंथन' (1953), 'सोच विचार' (1953), 'काम, प्रेम और परिवार' (1953), 'ये और वे' (1954), 'समय औऱ हम' आदि जैनेंद्र के विचारप्रधान निबंधसंग्रह हैं। इन संग्रहों के माध्यम से जैनेंद्र एक गंभीर चिंतक के रूप में हमारे सामने आते हैं। इनके विषय साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, संस्कृति तथा दर्शन आदि हैं। जैनेंद्र के ये निबंध जहाँ एक ओर वैचारिक गहनता के गुण से पूरित हैं, वहाँ भाषा की अस्पष्टता और दूरूहता भी इनमें देखी जा सकती है। इनकी शैली भी अटपटी लगती है। गंभीर विषयों के सूक्ष्म विवेचन के लिए विचार-क्रम में जो सुलझाव और सुचिंतन अनिवार्य है, उसका भी इनमें अभाव प्रतीत होता है। जैनेंद्र के उपर्युक्त विषयों पर जो विचार प्रश्नोत्तर रूप में प्रस्तुत किए गए हैं, उन पर भी उपर्युक्त कथन लागू होता है।

सर्जनात्मक क्षेत्र में कार्य करने के अतिरिक्त जैनेंद्र अनुवाद क्षेत्र में भी सक्रिय रहे हैं। उन्होंने मैटरलिंक के एक नाटक का अनुवाद हिंदी में 'मंदालिनी' के नाम से किया है। इसका प्रकाशन सन 1935 में हुआ। सन 1037 में उन्होंने 'प्रेम में भगवान' शीर्षक से टाल्सटाय की कुछ कहानियों का अनुवाद प्रस्तुत किया। इसी साहित्यकार के एक नाटक का अनुवाद भी उन्होंने 'पाप और प्रकाश' के नाम से किया, जिसका प्रकाशन सन 1953 में हुआ।

[संपादित करें] प्रकाशित कृतियाँ

उपन्यासः 'परख' (1929), 'सुनीता' (1935), 'त्यागपत्र' (1937), 'कल्याणी' (1939), 'विवर्त' (1953), 'सुखदा' (1953), 'व्यतीत' (1953) तथा 'जयवर्धन' (1956)। कहानी संग्रहः 'फाँसी' (1929), 'वातायन' (1930), 'नीलम देश की राजकन्या' (1933), 'एक रात' (1934), 'दो चिड़ियाँ' (1935), 'पाजेब' (1942), 'जयसंधि' (1949) तथा 'जैनेंद्र की कहानियाँ' (सात भाग)। निबंध संग्रहः 'प्रस्तुत प्रश्न' (1936), 'जड़ की बात' (1945), 'पूर्वोदय' (1951), 'साहित्य का श्रेय और प्रेय' (1953), 'मंथन' (1953), 'सोच विचार' (1953), 'काम, प्रेम और परिवार' (1953), तथा 'ये और वे' (1954)। अनुवादित ग्रंथः 'मंदालिनी' (नाटक-1935), 'प्रेम में भगवान' (कहानी संग्रह-1937), तथा 'पाप और प्रकाश' (नाटक-1953)। सह लेखनः 'तपोभूमि' (उपन्यास, ऋषभचरण जैन के साथ-1932)। संपादित ग्रंथः 'साहित्य चयन' (निबंध संग्रह-1951) तथा 'विचारवल्लरी' (निबंध संग्रह-1952)। (सहायक ग्रंथ- जैनेंद्र- साहित्य और समीक्षाः रामरतन भटनागर।)