सुदामा चरित
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सुदामा चरित कवि नरोत्तमदास द्वारा अवधी भाषा में रचित काव्य-ग्रंथ है। इसकी रचना संवत १६०५ के लगभग मानी जाती है।
[संपादित करें] ग्रंथ
विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम।
भीख माँगि भोजन करैं, हिये जपैं हरि-नाम॥
ताकी घरनी पतिव्रता, गहै वेद की रीति।
सलज सुशील सुबुद्धि अति, पति सेवा सौं प्रीति॥
कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र।
करत रहति उपदेस तिय, ऐसो परम विचित्र॥
(भामिनी: सुदामा की पत्नी)
लोचन कमल, दुख-मोचन, तिलक भाल,
स्रवननि कुंडल, मुकुट धरे माथ हैं।
ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल,
संख-चक्र-गदा और पद्म लिये हाथ हैं।
विप्र नरोत्तम संदीपनि गुरु के पास,
तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं।
द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पिय,
द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं॥
(सुदामा)
सिच्छक हौं, सिगरे जग को तिय, ताको कहा अब देति है सिच्छा।
जे तप कै परलोक सुधारत, संपति की तिनके नहि इच्छा॥
मेरे हिये हरि के पद-पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा।
औरन को धन चाहिये बावरि, बामन को धन केवल भिच्छा॥
(भामिनी)
कोदों, सवाँ जुरितो भरि पेट, तौ चाहति ना दधि दूध मिठौती।
सीत बितीत भयो सिसियातहिं, हौं हठती पै तुम्हें न हठौती॥
जो जनती न हितू हरि सों तुम्हें, काहे को द्वारिका पेलि पठौती।
या घर ते न गयौ कबहूँ पिय, टूटो तवा अरु फूटी कठौती॥
(सुदामा)
छाँड़ि सबै जक तोहि लगी बक, आठहु जाम यहै हठ ठानी।
जातहि दैहैं, लदाय लढ़ा भरि, लैहैं लिवाय यहै जिय जानी॥
पैहे कहाँ ते अटारी अटा, विधि दीन्हि जो बस टूटी सी छानी।
जो पै दारिद्र लिखो है लिलार तौ, का्हू पै मेटि न जात अजानी॥
(भामिनी)
विप्र के भगत हरि जगत के विदित बंधु,
लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं।
पढ़े एक चटसार कही तुम कैयो बार,
लोचन अपार वै तुम्हैं न पहिचानि हैं।
एक दीनबंधु कृपासिंधु फेरि गुरुबंधु,
तुम सो को दीन जाकौ जिय जानि हैं।
नाम लेते चौगुनी, गये तें द्वार सौगुनी सो,
देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानि हैं॥
(सुदामा)
द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहु जू, आठहु जाम यहै जक तेरे।
जौ न कहौ करिहों तो बड़ौ दुख, जैहे कहाँ अपनी गति हेरे॥
द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँ, भूपति जान न पावत नेरे।
पाँच सुपारि तै देखु बिचार कै, भेंट को चारि न चाउँर मेरे॥
यह सुनि कै तब ब्राह्मनी, गई परोसिन पास।
पाव सेर चाउँर लिये, आई सहित हुलास॥
सिद्धि सिरी गनपति सुमिरि, बाँधि दुपटिया खूँट।
माँगत खात चले तहाँ, मारग वाली बूट॥
दीठि चकचौंधि गई देखत सुबर्नमई,
एक तें सरस एक द्वारिका के भौन हैं।
पूछे बिन कोऊ कहूँ काहू सों न करे बात,
देवता से बैठे सब साधि-साधि मौन हैं।
देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पाँय,
कृपा करि कहौ विप्र कहाँ कीन्हौ गौन हैं।
धीरज अधीर के हरन पर पीर के,
बताओ बलवीर के महल यहाँ कौन हैं?
(श्रीकृष्ण का द्वारपाल)
सीस पगा न झगा तन में प्रभु, जानै को आहि बसो केहि ग्रामा।
धोती फटी सी लटी दुपटी अरु, पाँय उपानहु की नहिं सामा॥
द्वार खरो द्विज दुर्बल एक, रह्यौ चकि सो वसुधा अभिरामा।
पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥
बोल्यौ द्वारपालक ’सुदामा नाम पाँड़े’ सुनि,
छाँड़े राज-काज ऐसे जी की गति जानै को?
द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँय,
भेंटे भरि अंक लपटाय ऐसे दुख सानै को?
नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि,
बिप्र बोल्यौ विपदा में मोहि पहिचाने को?
जैसी तुम करी तैसी करै को कृपा के सिंधु,
ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौं माने को?
अंत:पुर कों लै गये जहँ दूसर नहिं जाय।
मणि-मांडित चौकी-कनक ता ऊपर बैठाय।
पानी धरो परात में, पग धोवन कों लाय।।
ऐसे बेहाल बेवाइन सों भये, पग कंटक-जाल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न कितै दिन खोये॥
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैंनन के जल सौं पग धोये॥
(श्री कृष्ण)
कछु भाभी हमकौं दियो, सो तुम काहे न देत।
चाँपि पोटरी काँख में, रहे कहौ केहि हेत॥
आगे चना गुरु-मात दये ते, लये तुम चाबि हमें नहिं दीने।
श्याम कह्यौ मुसकाय सुदामा सों, चोरि की बानि में हौ जू प्रवीने॥
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने।
पाछिली बानि अजौं न तजी तुम, तैसेइ भाभी के तंदुल कीने॥
देनो हुतौ सो दै चुके, बिप्र न जानी गाथ।
मन में गुन्यो गोपाल जू, कछू न दीन्हों हाथ॥
वह पुलकनि वह उठि मिलन, वह आदर की बात।
यह पठवनि गोपाल की, कछू ना जानी जात॥
घर-घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज।
कहा भयौ जो अब भयौ, हरि को राज-समाज॥
हौं कब इत आवत हुतौ, वाही ने पठ्यौ ठेलि।
अब कहिहौं समुझाइके, बहु धन धरौ सकेलि॥
वैसोई राज-समाज बनो, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ।
कै तो परो कहूँ मारग भूलि, कै फेरि के मैं अब द्वारिका आयौ।
भौन बिलोकिबे को मन लोचत, सोचत ही सब गाँव मँझायौ।
पूछत पाँड़े फिरे सबसों पर झोपरी को कहूँ खोज न पायौ॥
कनक-दंड कर में लिये, द्वारपाल हैं द्वार।
जाय दिखायौ सबनि लै, या है महल तुम्हार॥
टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौर,
तामैं परी दुख काटे कहाँ हेम-धाम री।
जेवर-जराऊ तुम साजे सब अंग-अंग,
सखी सोहै संग वह छूछी हुती छाम री।
तुम तो पटंबर री ओढ़े हो किनारीदार,
सारी जरतारी वह ओढ़े कारी कामरी।
मेरी वा पंडाइन तिहारी अनुहार ही पै,
विपदा सताई वह पाई कहाँ पामरी?
कै वह टूटी सी छानि हती कहँ, कंचन के अब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हती कहँ, लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
भूमि कठोर पै रात कटै कहँ, कोमल सेज पै नींद न आवत।
जुरतो न कोदो सवाँ भरि पेट, प्रभु के परताप तै दाख न भावत॥
[संपादित करें] स्रोत्र
- यह सुदामा चरित श्री जी. के. अवधिया जी ने लक्ष्मी गुप्त जी के लेख पर टिप्पणी के रूप में लिख भेजा है जिसके लिये वे बधाई के पात्र हैं।