तलत महमूद

विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से

तलत महमूद(24 फरवरी, 1924-9 मई, 1998) एक भारतीय गायक तथा अभिनेता थे । अपने थरथराते गले से मशहूर उनको गजल की दुनिया का राजा भी कहा जाता है ।

तलत महमूद
तलत महमूद

अनुक्रमणिका

[संपादित करें] बचपन

उनका जनम 24 फरवरी 1924 को लखनऊ में हुआ था । वे अपनी माता तथा गायक पिता की छठी संतान थे । उनके पिता अपनी आवाज को अल्लाह का दिया गला कहकर उसी को समर्पित करने भर की इच्छा रखते थे और बस नातें गाते थे । बचपन में तलत ने अपने पिता की नकल करने की कोशिश की जिसका घर में ज्यादा समर्थन नहीं मिला । सिर्फ एक बुआ उनको सुनती थीं और प्रोत्साहन देती थीं । उन्होने ही अपनी जिद पर किशोरवय तलत को संगीत की शिक्षा के लिए मॉरिश कालेज में दाखिल भी करवा दिया । सोलह साल की उम्र में तलत को कमल दासगुप्ता की सब दिन एक समान नहीं गाने का मौका मिला । यह गीत प्रसारित होने के बाद लखनऊ में बहुत लोकप्रिय हुआ । लगभग एक साल के भीतर, प्रसिद्ध संगीत रेकॉर्डिंग कम्पनी एच एम वी की टीम कलकत्ता से लखनऊ आई और पहले उनके दो गाने रेकॉर्ड किये गए । उनके चलने के बाद तलत के चार और गाने रेकॉर्ड किए गए जिसमें तस्वीर तेरी दिल मेरा बहला न सकेगी भी शामिल थी । यह गज़ल बहुत पसन्द की गई और बाद में एक फिल्म में शामिल भी की गई ।

[संपादित करें] ख्यातिलब्धि

दूसरे विश्वयुद्ध के समय उन दिनों में पार्श्व गायन का शुरुआती दौर था। अधिकतर अभिनेता अपने गाने खुद गाते थे। कुंदनलाल सहगल की लोकप्रियता से प्रेरित होकर तलत भी गायक–अभिनेता बनने के लिए सन 1944 में कलकत्ता जा पहुंचे, जो उस समय इन गतिविधियों का प्रधान केन्द्र था । लगभग उसी समय जब सहगल कलकत्ता छोड़कर मुंबई गए थे । कलकत्ता में संघर्ष के बीच तलत की शुरुआत बांग्ला गीत गाने से हुई। रिकार्डिंग कंपनी ने गायक के रूप में उनको तपन कुमार नाम से गवाया । तपन कुमार के गाए सौ से ऊपर गीत रेकॉर्डों में आए। न्यू थियेटर्स ने 1945 में बनी 'राजलक्ष्मी' में तलत को नायक–गायक बनाया। संगीतकार राबिन चटर्जी के निर्देशन में इस फ़िल्म में उनके गाए जागो मुसाफ़िर जागो ने भरपूर सराहना बटोरी। उत्साहित होकर वे मुंबई जाकर अनिल विश्वास से मिले। अनिल दा ने यह कहकर लौटा दिया कि अभिनेता बनने के लिए वे बहुत दुबले हैं। बदन पर चरबी चढ़ाकर आने की नसीहत के साथ तलत वापस कलकत्ता चले गए¸ जहां उन्हें 1949 तक कुल दो फ़िल्में ही और मिली¸ 'तुम और वो' और 'समाप्ति'। कलकत्ता में काम ढीला देखकर वे पुन: मुंबई पहुंच गए।


अबकी बार अनिल विश्वास ने उन्हें फिल्मिस्तान की फिल्म आरजू में परदे के पीछे से गाने का मौका दिया । दिलीप कुमार के उपर फिल्माया गया गीत ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल हिट हो गया और तलत की कंपकपाती आवाज संगीतकारों की निगाह में जम गई । लगभग इसी समय संगीतकार नौशाद अपने लिए एक चहेते गायक की तलाश में थे । शंकर-जयकिशन की फिल्म बरसात (1949) के हिट होने की वजह से वे उन्हें संगीत के क्षेत्र में अपना रक़ीब मानते थे और गायक मुकेश को उनके खेमे का आदमी । रफ़ी या मन्ना डे पर उनकी निगाह गई नहीं थी अतः तलत को उन्होने अपने लिए गवाने की सोची । 1950 में एक बार फिर दिलीप कुमार के लिए उन्हें गाने का मौका मिला-इस बार नौशाद के हाथों । इसी फिल्म का गीत मिलते ही आंखें दिल हुआ दीवाना किसी का हिट हुआ और तलत महमूद तथा शमशाद बेगम की आवाज पसन्द की गई । उसी वर्ष तलत ने विभिन्न मुशीकारों (संगीतकार) की धुनपर कुल सोलह गाने गाए - उनकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही थी ।

इसी समय मुकेश को राजकपूर के गानों से ख्याति मिल रही थी तो रफी शहीद (1948), दुलारी (1949), मेला तथा बैजू बावरा (1952) के गानों से लोकप्रिय हो रहे थे । सेट पर धूम्रपान करने की आदत की वजह से नौशाद ने तलत को नजरअंदाज करना शुरु किया पर दूसरे संगीतकार तलत से कुछ न कुछ गवाते रहे और पचास के दशक के पूर्वार्ध में तलत की आवाज गूंजती रही ।

[संपादित करें] अभिनय की जिद

गाने की यह रफ्त़ार तलत लंबे समय तक इसलिए कायम नहीं रख पाए क्योंकि¸ गायक के रूप में ख्य़ाति से उन्हें तसल्ली नहीं थी और वे स्वयं को एक सफल और स्थापित अभिनेता के रूप में देखना चाहते थे¸ बावजूद इस हकीकत के कि वे जितने अच्छे गायक थे¸ उतने अच्छे अभिनेता नहीं। पर उनकी आवाज़ की लालसा में उन्हें अभिनय का मौका भी दिया जाने लगा। 'आराम' में वे एक ग़ज़ल 'शुक्रिया अय प्यार तेरा' गाते परदे पर नज़र आए। फिर सोहराब मोदी ने मिनर्वा की 'वारिस' में उन्हें सुरैया जैसी चोटी की नायिका के साथ नायक बनाया तो कारदार ने 'दिले नादान' में नयी तारिका चांद उस्मानी के साथ। 'डाक बाबू'¸ 'एक गांव की कहानी' वगैरह को मिलाकर तलत तेरह फ़िल्मों में नायक तो बन गए¸ पर गायन पर समुचित ध्यान न देने से पिछड़ने लगे। हाशिये पर चले गए¸ रफी फिर केंद्र में आने लगे ।

अभिनय से हासिल कुछ ख़ास न होने और बदले में गायन में बहुत कुछ गंवाने का एहसास तलत को सन 1958 में बनी 'सोने की चिड़िया' से हुआ। कथाकार इस्मत चुगताई की कहानी पर अभिनेत्री नरगिस के जीवन की छाप थी। चुगताई के शौहर शहीद लतीफ निर्माता–निर्देशक थे¸ नायिका नूतन और उसके सामने दो नायकों में एक बलराज साहनी और दूसरे तलत महमूद। संगीतकार ओ.पी.नैयर ने ज़िद पकड़ ली थी कि तलत पर फ़िल्माए जानेवाले गाने 'प्यार पर बस तो नहीं' के लिए रफी का गला उधार लेंगे। अंत में वह गाना तलत स्वयं तभी गा पाए¸ जब उन्होंने फ़िल्म का काम बीच में ही छोड़ देने की धमकी दी।

उसी समय बिमल राय की 'मधुमति' बन रही थी¸ जिसमें संगीतकार सलिल चौधरी दिलीप कुमार के लिए तलत की आवाज़ लेना चाहते थे। पर उस समय मुकेश गर्दिश के दौर में थे। तलत ने सलिल चौधरी से कहा कि वे उनकी बजाय मुकेश को काम दें और 'मधुमति' में दिलीप कुमार के लिए आख़िरी बार मुकेश ने गाया। फ़िल्म संगीत के जानकार मानते हैं कि उनमें संगीत रचना की अदभुत प्रतिभा थी। 'ग़मे आशिकी से कह दो' की धुन उन्होंने पलक झपकते तैयार कर दी थी। अभिनय के चक्कर में पड़ने की बजाय संगीत कार बनने की ओर कदम बढ़ाते¸ तो न जाने कितने आगे जाते।

[संपादित करें] गायकी में अवसान

साठ का दशक शुरू होते तक फ़िल्मों में उनके गाने बहुत कम होने लगे। 'सुजाता' का जलते हैं जिसके लिए इस वक्त का उनका यादगार गीत है। फ़िल्मों के लिए आख़िरी बार उन्होंने सन 1966 में 'जहांआरा' में गाया¸ जिसके संगीतकार मदन मोहन थे। इसके बाद फ़िल्म संगीत का स्वरूप कुछ इस तरह बदलने लगा था कि उसमें तलत जैसी आवाज़ के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची थी। लेकिन तलत के ग़ैर–फ़िल्मी गायन का सिलसिला बराबर चलता रहा और उनके अलबम निकलते रहे। ग़ज़ल गायकी के तो वे पर्याय ही बन गए थे। उनकी आवाज़ जैसे कुदरत ने ग़ज़ल के लिए ही रची थी।

तलत महमूद को सन 1956 में मंच पर कार्यक्रम के लिए दक्षिण अफ्रीका बुलाया गया। इस प्रकार के कार्यक्रम के लिए भारत से किसी फ़िल्मी कलाकार के जाने का यह पहला अवसर था। तलत महमूद का कार्यक्रम इतना सफल रहा कि दक्षिण अफ्रीका के अनेक नगरों में उनके कुल मिलाकर बाइस कार्यक्रम हुए¸ फिर विदेशों में भारतीय फ़िल्मी कलाकारों के मंच कार्यक्रमों का सिलसिला चल पड़ा। तलत महमूद इन कार्यक्रमों में लगातार व्यस्त रहे। फ़िल्मी दुनिया से अवकाश मिलने के बाद तो देश–विदेश में आए दिन 'तलत महमूद नाइट' होने लगी। उनकी आमदनी के कारण तलत महमूद को आर्थिक परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ा तथापि फ़िल्मों में गाने से दूर हो जाने का मलाल उन्हें बराबर सालता रहा¸ उस समय तक कि जब तक पक्षाघात के कारण वे गाने में असमर्थ नहीं हो गए। तथापि¸ उनके फ़िल्मी और ग़ैर–फ़िल्मी गानों के सुननेवालों की तादाद या उत्साह में कमी नहीं हुई। दो सौ फ़िल्मों में उनके लगभग पांच सौ और कोई ढ़ाई सौ ग़ैर–फ़िल्मी गाने हैं ।

[संपादित करें] निधन

9 मई 1998 को तलत महमूद अपनी नश्वर काया छोड़कर चले गए ।

[संपादित करें] बाहरी कड़ियां

अन्य भाषायें