छत्तीसगढ़ी
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छत्तीसगढ़ी शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त होता है।
1. छत्तीसगढ़ी भाषा, वह भाषा जो भारत के छत्तीसगढ़ प्रांत और उसके आसपास बोली जाती है।
2. छत्तीसगढ़ी लोग, वे लोग जो भारत के छत्तीसगढ़ प्रांत में रहते हैं या जिनका जन्म छत्तीसगढ़ में हुआ है।
[संपादित करें] छत्तीसगढ़ी भाषा
छत्तीसगढ़ी भारत में छत्तीसगढ प्रांत में बोली जाने वाली एक भाषा है। यह हिंदी के काफ़ी निकट है और इसकी लिपि देवनागरी है। इसका अपना समृद्ध साहित्य है। छत्तीसगढ़ी साहित्य
श्री प्यारेलाल गुप्त अपनी पुस्तक " प्राचीन छत्तीसगढ़" में बड़े ही रोचकता से लिखते है - " छत्तीसगढ़ी भाषा अर्धभागधी की दुहिता एवं अवधी की सहोदरा है " (पृ 21 प्रकाशक रविशंकर विश्वविद्यालय, 1973 )। " छत्तीसगढ़ी और अवधी दोनों का जन्म अर्धमागधी के गर्भ से आज से लगभग 1080 वर्ष पूर्व नवीं-दसवीं शताब्दी में हुआ था।"
डा. भोलानाथ तिबारी, अपनी पुस्तक " हिन्दी भाषा" में लिखते है - " छत्तीसगढ़ी भाषा भाषियों की संख्या अवधी की अपेक्षा कहीं अधिक है, और इस दृ से यह बोली के स्तर के ऊपर उठकर भाषा का स्वरुप प्राप्त करती है।"
भाषा साहित्य पर और साहित्य भाषा पर अवलंबित होते है। इसीलिये भाषा और साहित्य साथ-साथ पनपते है। परन्तु हम देखते है कि छत्तीसगढ़ी लिखित साहित्य के विकास अतीत में स्पष्ट रुप में नहीं हुई है। अनेक लेखकों का मत है कि इसका कारण यह है कि अतीत में यहाँ के लेखकों ने संस्कृत भाषा को लेखन का माध्यम बनाया और छत्तीसगढ़ी के प्रति ज़रा उदासीन रहे।
इसीलिए छत्तीसगढ़ी भाषा में जो साहित्य रचा गया, वह करीब एक हज़ार साल से हुआ है।
अनेक साहित्यको ने इस एक हजार वर्ष को इस प्रकार विभाजित किया है :
(१) गाथा युग
सन् 1000 से 1500 ई. तक
(२) भक्ति युग - मध्य काल
सन् 1500 से 1900 ई. तक
(३) आधुनिक युग
सन् 1900 से आज तक
ये विभाजन साहित्यिक प्रवृत्तियों के अनुसार किया गया है यद्यपि प्यारेलाल गुप्त जी का कहना ठीक है कि - " साहित्य का प्रवाह अखण्डित और अव्याहत होता है।" श्री प्यारेलाल गुप्त जी ने बड़े सुन्दर अन्दाज़ से आगे कहते है - " तथापि विशिष्ट युग की प्रवृत्तियाँ साहित्य के वक्ष पर अपने चरण-चिह्म भी छोड़ती है : प्रवृत्यानुरुप नामकरण को देखकर यह नहीं सोचना चाहिए कि किसी युग में किसी विशिष्ट प्रवृत्तियों से युक्त साहित्य की रचना ही की जाती थी। तथा अन्य प्रकार की रचनाओं की उस युग में एकान्त अभाव था।"
यह विभाजन किसी प्रवृत्ति की सापेक्षिक अधिकता को देखकर किया गया है।
एक और उल्लेखनीय बत यह है कि दूसरे आर्यभाषाओं के जैसे छत्तीसगढ़ी में भी मध्ययुग तक सिर्फ पद्यात्मक रचनाएँ हुई है।