काका कालेलकर
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1 दिसंबर 1885 को महाराष्ट्र के सतारा नगर में जन्मे दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर भारत के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री, पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी थे। [१] उनका परिवार मूल रूप से करनाटक के करवार जिले का रहने वाला था और उनकी मातृभाषा कोंकणी थी। लेकिन सालों से गुजरात में बस जाने के कारण गुजराती भाषा पर उनका बहुत अच्छा अधिकार था और वे गुजराती के प्रख्यात लेखक समझे जाते थे।
वे साबरमती आश्रम के सदस्य थे और अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। गांधी जी के निकटतम सहयोगी होने का कारण ही वे काका के नाम से जाने गए। वे सर्वोदय पत्रिका के संपादक भी रहे। 1930 में पूना का यरवदा जेल में गांधी जी के साथ उन्होंने महत्वपूर्ण समय बिताया। [२]
काका कालेलकर
जन्म 1 दिसंबर 1885, महाराष्ट्र के सातारा नगर में। जिन नेताओं ने राष्ट्रभाषा प्रचार के कार्य में विशेष दिलचस्पी ली और अपना समय अधिकतर इसी काम को दिया, उनमें प्रमुख काकासाहब कालेलकर का नाम आता है। उन्होंने राष्ट्रभाषा के प्रचार को राष्ट्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत माना है। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के अधिवेशन में (1938) भाषण देते हुए उन्होंने कहा था, हमारा राष्ट्रभाषा प्रचार एक राष्ट्रीय कार्यक्रम है।
उन्होंने पहले स्वयं हिंदी सीखी और फिर कई वर्षतक दक्षिण में सम्मेलन की ओर से प्रचार-कार्य किया। अपनी सूझ-बूझ, विलक्षणता और व्यापक अध्ययन के कारण उनकी गणना प्रमुख अध्यापकों और व्यवस्थापकों में होने लगी। हिंदी-प्रचार के कार्य में जहाँ कहीं कोई दोष दिखाई देते अथवा किन्हीं कारणों से उसकी प्रगति रुक जाती, गांधी जी काका कालेलकर को जाँच के लिए वहीं भेजते। इस प्रकार के नाज़ुक काम काका कालेलकर ने सदा सफलता से किए। इसलिए 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति' की स्थापना के बाद गुजरात में हिंदी-प्रचार की व्यवस्था के लिए गांधी जी ने काका कालेलकर को चुना। काका साहब की मातृभाषा मराठी थी। नया काम सौंपे जाने पर उन्होंने गुजराती का अध्ययन प्रारंभ किया। कुछ वर्षतक गुजरात में रह चुकने के बाद वे गुजराती में धाराप्रवाह बोलने लगे। साहित्य अकादमी में काका साहब गुजराती भाषा के प्रतिनिधि रहे। गुजरात में हिंदी-प्रचार को जो सफलता मिली, उसका मुख्य श्रेय काका साहब को है।
आचार्य काका साहब कालेलकर जी का नाम हिंदी भाषा के विकास और प्रचार के साथ जुड़ा हुआ है। 1938 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के अधिवेशन में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था,"राष्ट्रभाषा प्रचार हमारा राष्ट्रीय कार्यक्रम है।" अपने इसी वक्तव्य पर दृढ़ रहते हुए उन्होंने हिंदी के प्रचार को राष्ट्रीय कार्यक्रम का दर्जा दिया।[३]
काका कालेलकर उच्चकोटि के विचारक और विद्वान थे। उनका योगदान हिंदी-भाषा के प्रचार तक ही सीमित नहीं था। उनकी अपनी मौलिक रचनाओं से हिंदी साहित्य समृद्ध हुआ है। सरल और ओजस्वी भाषा में विचारपूर्ण निबंध और विभिन्न विषयों की तर्कपूर्ण व्याख्या उनकी लेखन-शैली के विशेष गुण हैं। मूलरूप से विचारक और साहित्यकार होने के कारण उनकी अभिव्यक्ति की अपनी शैली थी, जिसे वह हिंदी-गुजराती, मराठी और बंगला में सामान्य रूप से प्रयोग करते थे। उनकी हिंदी-शैली में एक विशेष प्रकार की चमक और व्यग्रता है जो पाठक को आकर्षित करती है। उनकी दृष्टि बड़ी सूक्ष्म थी, इसलिए उनकी लेखनी से प्रायः ऐसे चित्र बन पड़ते हैं जो मौलिक होने के साथ-साथ नित्य नये दृष्टिकोण प्रदान करते रहें। उनकी भाषा और शैली बड़ी सजीव और प्रभावशाली थी। कुछ लोग उनके गद्य को पद्यमय ठीक ही कहते हैं। उसमें सरलता होने के कारण स्वाभाविक प्रवाह है और विचारों का बाहुल्य होने के कारण भावों के लिए उड़ान की क्षमता है। उनकी शैली प्रबुद्ध विचार की सहज उपदेशात्मक शैली है, जिसमें विद्वत्ता, व्यंग्य, हास्य, नीति सभी तत्व विद्यमान हैं।
काका साहब मँजे हुए लेखक थे। किसी भी सुंदर दृश्य का वर्णन अथवा पेचीदा समस्या का सुगम विश्लेषण उनके लिए आनंद का विषय रहे। उन्होंने देश, विदेशों का भ्रमण कर वहाँ के भूगोल का ही ज्ञान नहीं कराया, अपितु उन प्रदेशों और देशों की समस्याओं, उनके समाज और उनके रहन-सहन उनकी विशेषताओं इत्यादि का स्थान-स्थान पर अपनी पुस्तकों में बड़ा सजीव वर्णन किया है। वे जीवन-दर्शन के जैसे उत्सुक विद्यार्थी थे, देश-दर्शन के भी वैसे ही शौकिन रहे।
काका कालेलकर की लगभग 30 पुस्तकें प्रकाशित हुई जिनमें अधिकांश का अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। उनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ ये हैं- 'स्मरण-यात्रा', 'धर्मोदय' (दोनों आत्मचरित), 'हिमालयनो प्रवास', 'लोकमाता' (दोनों यात्रा विवरण), 'जीवननो आनंद', 'अवरनावर' (दोनों निबंध संग्रह)
काका कालेलकर सच्चे बुद्धिजीवी व्यक्ति थे। लिखना सदा से उनका व्यसन रहा। सार्वजनिक कार्य की अनिश्चितता और व्यस्तताओं के बावजूद यदि उन्होंने बीस से ऊपर ग्रंथों की रचना कर डाली इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इनमें से कम-से-कम 5-6 उन्होंने मूल रूप से हिंदी में लिखी। यहाँ इस बात का उल्लेख भी अनुपयुक्त न होगा कि दो-चार को छोड़ बाकी ग्रंथों का अनुवाद स्वयं काका साहब ने किया, अतः मौलिक हो या अनूदित वह काका साहब की ही भाषा शैली का परिचायक हैं। हिंदी में यात्रा-साहित्य का अभी तक अभाव रहा है। इस कमी को काका साहब ने बहुत हदतक पूरा किया। उनकी अधिकांश पुस्तकें और लेख यात्रा के वर्णन अथवा लोक-जीवन के अनुभवों के आधार पर लिख गए। हिंदी, हिंदुस्तानी के संबंध में भी उन्होंने कई लेख लिखे।
काका कालेलकर जी का निधन 21 अगस्त 1981 में 96 साल की उम्र में हुआ।
- ↑ An Ideal Prisoner (अंग्रेज़ी) (एचटीएम)। एमकेगांधीडॉटऑर्ग। अभिगमन तिथि: 18 जुलाई, 2007।
- ↑ Gandhiji carried Govind (Pai's) stick (अंग्रेज़ी) (पी एच पी)। कामत डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 18 जुलाई, 2007।
- ↑ वर्मा, धीरेन्द्र (1985)। हिन्दी साहित्य कोश, भाग दो। वाराणसी, भारत: ज्ञानमंडल लिमिटेड.। अभिगमन तिथि: 18 जुलाई, 2007।
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