ऋग्वेद का कूट-ज्योतिष

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ऋग्वेद का कूट-ज्योतिष यह अंग्रेज़ी में लिखी सुभाष काक की १९९४ (और २००० में बडा संस्करण ) प्रकाशित पुस्तक दि एस्ट्रोनोमिकल कोड आफ दि ऋग्वेद है। इसमें सदियों से लुप्त वैदिक काल के ज्योतिष की व्याख्या है। इसका भारत के इतिहास की समझ के लिये भी बहुत महत्व है। इससे काल-क्रम पर भी प्रकाश डलता है। और यह समझ आती है कि क्यों ऋग्वेद में ४३२००० अक्षर हैं। इस ग्रन्थ से वैदिक अध्ययन को बहुत स्फूर्ति मिली है। अमेरिका के वेदपण्डित वामदेव शास्त्री ने इस शोध को स्मारकीय उपलब्धि (monumental achievement) कहा है।[१]

कनाडा के विख्यात आचार्य क्लास क्लास्टरमेयर के अनुसार, "मेरी बहुत देर की समझ थी कि ऋग्वेद में भाषाशास्त्र और इतिहास के परे बहुत कुछ था। यह है वह!... यह एक युगान्तककारी खोज (epoch-making discovery) है।"[२]

[संपादित करें] मण्डल चिति

ऋग्वेद के १० मण्डल एक वैदिक चिति समान हैं, यह सुभाष काक की खोज का पहला चरण था। वैदिक चिति ५ परत की होती है, अतः ऋग्वेद को भी ५ परत में देखना चाहिये। मूल तथ्य अधस्तात हैं:

फलक १: मण्डल चिति

मण्डल 10  मण्डल 9
मण्डल 7   मण्डल 8
मण्डल 5   मण्डल 6
मण्डल 3   मण्डल 4
मण्डल 2   मण्डल 1

प्रत्येक मण्डल में सूक्त संख्या डाल कर--

फलक २: मण्डल चिति में सूक्त

 191       114
 104        92
  87        75
  62        58
  43       191

इन अंकों में बहुत सममिति है। इनका विकर्णीय भेद १७ और २९ है। मण्डल [4+6+8+9] = 339, चिति का मेरुदण्ड; निचला भाग मण्डल [2+3+5+7] = 296; पद और शिर मण्डल [1+10] = 382; अंक 296 और 382 दोनों 339 से 43 दूरी पर हैं। ३३९ पूरी सूक्त संख्या १०१७ का एक तिहाई है। अंक ३३९ सूर्योदय से सूर्यास्त तक आकाश में सूर्य के वृत्त के व्यास होते हैं। यह संख्या १०८ गुणा है। इसका अर्थ हुआ कि सूर्य और चन्द्रमा पृथिवी से क्रमशः लगभग १०८ गुणा निजि व्यास की दूरी पर हैं। आधुनिक ज्योतिष ने तो यह भी दिखाया है कि सूर्य का व्यास पृथिवी के व्यास से लगभग १०८ गुणा है।[३]

[संपादित करें] स्रोत

  1. 'दि एस्ट्रोनोमिकल कोड आफ दि ऋग्वेद' के जिल्द से, मुंशीराम मनोहारलाल, नई दिल्ली, २०००।
  2. 'दि एस्ट्रोनोमिकल कोड आफ दि ऋग्वेद' के जिल्द से, मुंशीराम मनोहारलाल, नई दिल्ली, २०००।
  3. सु काक, "Birth and early development of Indian astronomy." In Astronomy Across Cultures: The History of Non-Western Astronomy, Helaine Selin (ed), Kluwer, 2000, pp. 303-340. http://arxiv.org/abs/physics/0101063
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